परदेशी ना अइले / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’
फागुन आके बीत चलल,
घर परदेशी ना अइले।
बीत चलल चानी के रतिया
ऊ मधुमय दिन बीतल;
गरम चलल पछिया रे
अब ना बा पुरवैया शीतल;
आस लगा के अंखिया बरिसल
अंग-अंग पियरइले।
रंग गुलाबी उमड़-घुमड़ के
कोना में जा सूतल;
गांव-गांव में ‘चहका’ ‘लहरा’
चहक-लहर के टूटल;
एक-एक दिन युग, पल-पल रे
बरिस-बरिस भर गइले।
कोइलर के पंचम सुर सुन-सुन
मनवां रे मधुआइल;
कली हिया के खिल-खिल
कतना बार गिरल मुरझाइल,
उमगत-थिरकत अंग-अंग के
यौवन अब जठरइले।
पिया मिलन के सपना चुपके
आंसू बन के आइल;
बहत-बहत अंखिया के नदिया,
बन वीरान सुखाइल,
सुख के डूबल मधुर किरिनियां
दुख के बादल छइले।
मजरल आमन के डालन में
लगल टिकोरा लटके;
आज पिया से सून अगनवाँ
रहि-रहि मन में खटके;
तन आँगन में बा लेकिन मन
पास पिया के गइले।
फागुन आके बीत चलल,
घर परदेशी ना अइले।