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परदे के पीछे / रमेश रंजक

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परदे के पीछे मत जाना मेरे भाई !
टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, बैठे हुए कसाई ।

बड़े-बड़े अफ़सर बैठे हैं
माल धरे तस्कर बैठे हैं
बैठे हैं कुबेर के बेटे
ऐश लूटते लेटे-लेटे
नंगी कॉकटेल में नंगी नाच रही गोराई ।

इधर बोरियों की कतार है
पतलूनों में रोज़गार है
बड़े-बड़े गोदाम पड़े हैं
जिन पर नमक हराम खड़े हैं
परदे के बाहर पहरे पर आदमक़द महँगाई ।

जिसने उधर झाँककर देखा
उसकी खिंची पीठ पर रेखा
काया लगने लगी गिलहरी
ख़ून गिरा पी गई कचहरी
ऐसा क़त्ल हुआ चौरे में लाश न पड़ी दिखाई ।

तेरी क्या औक़ात बावले
जो परदे की ओर झाँकले
ये परदा इस-उसका चंदा
समझौतों का गोल पुलंदा
ऐसा गोरखधंधा जिसकी नस-नस में चतुराई ।

जो इक्के-दुक्के जाएँगे
वापस नहीं लौट पाएँगे
जाना है तो गोल बना ले
हथियारों पर हाथ जमा ले
ऐसा हल्ला बोल कि जागे जन-जन की तरुणाई ।

रचनाकाल : 10 जुलाई 1974