भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परबतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परबतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
सुरमई उजाला है, चम्पई अँधेरा है
सुरमई उजाला है

दोनों वक़्त मिलते हैं, दो दिलों की सूरत से
आसमाँ ने ख़ुश होकर रंग-सा बिखेरा है
आसमाँ ने ख़ुश होकर

ठहरे-ठहरे पानी में गीत सरसराते हैं
भीगे-भीगे झोंकों में ख़ुशबुओं का डेरा है
परबतों के पेड़ों पर

क्यूँ न जज़्ब हो जाए इस हसीं नज़ारे में
रोशनी का झुरमट है, मस्तियों का घेरा है
परबतों के पेड़ों पर

अब किसी नज़ारे की दिल को आरज़ू क्यूँ हो
जबसे पा लिया तुमको, सब जहान मेरा है
परबतों के पेड़ों पर