परबत के पैताने पहुँचे परबत के सिरहाने भी / रामकुमार कृषक
परबत के पैताने पहुँचे परबत के सिरहाने भी
कहाँ-कहाँ तक ले जाते हैं अक्सर कई बहाने भी
हरा-भरा सागर लहराता चंद डोंगियों-जैसे घर
महानगर के उस जंगल से बेहतर ये वीराने भी
जीने का रस कहाँ नहीं है जीनेवालों से पूछो
इसीलिए लगती हैं शायद चट्टानें आँखुवाने भी
गुमसुम-गुमसुम है वनराजी लहराती-गाती भी है
गम-सरगम को पहचानो तो होंगे कई घराने भी
दूर देश जा रहे पहड़ों से पूचा तो यूँ बोले
क़दमों में राहें होंगी तो होंगे ठौर-ठिकाने भी
कौन कहाँ कब गिर जाएगा इसका कोई पता नहीं
कई बार तो गिर जाती हैं बड़ी-बड़ी चट्टानें भी
खो जाते हैं घर में रहकर बाहर ख़ुद को पा जाते
पहचाने जाने लगते हैं अपने भी बेगाने भी
शिमला-उमला मालरोड के माल-टाल की क्या पूछो
उकसाती है जेब, जेब ही लगती है खिजलाने भी