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परमसत्ता / श्रीनिवास श्रीकांत

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ब्रह्माण्डीय आत्मा गायब है
आज के परिदृश्य से
उस पर हावी है
आदमी की भौतिक विषा— अंतरंग
मछली की तरह छटपटाती

रूहपोश नज़र आयेगी तुम्हें
वह परमा
पर्वतीय ढलानों पर
हवा में झूमते दरख़्तों में
आसमान में
तैरते बादलों में
उदयास्त सूरज के
सम्मोहन में
रंगों में
हवाओं में
भाप बन कर उड़ती
पत्तियों की ओस में

आसमान का नटुआ
हवाओं के हाथ से

अब बजाता मृदंग
नाचने लगता है
आसपास
तब वह होती है वहीं
चेतना के सागर-जल में
समाधिस्थ

सतह पर
उछलती रहती हैं लहरें
अपने वृहद घोष में
कूदतीं ज्वा की रस्सियाँ
तू़फ़ानों के साथ
नज़र आती हैं वे
चन्द्रमा के हज़ार-हज़ार बिम्बों में
समुद्र के ज्वार में
तट पर उमड़ती लहरों की
तैरती बक पंक्तियों में
पर फडफ़ड़ातीं।