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परम दुख / अक्कितम
Kavita Kosh से
कल आधी रात में बिखरी चाँदनी में
स्वयं को भूल
उसी में लीन हो गया मैं
स्वतः ही
फूट फूट कर रोया मैं
नक्षत्र व्यूह अचानक ही लुप्त हो गया ।
निशीथ गायिनी चिड़िया तक ने
कारण न पूछा
हवा भी मेरे पसीने की बून्दें न सुखा पाई ।
पड़ोस के पेड़ से
पुराना पत्ता तक भी न झड़ा
दुनिया इस कहानी को
बिल्कुल भी न जान सकी ।
पैर के नीचे की घास भी न हिली-डुली
फिर भी मैंने किसी से नहीं बताई वह बात ।
क्या है
यह सोच भी नहीं पा रहा मैं
फिर इस बारे में दूसरों को क्या बताऊँ मैं ?
हिन्दी में अनुवाद : उमेश कुमार सिंह चौहान