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परशुराम भीष्म का युद्ध / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

अम्बा के कारण कुरुक्षेत्र
गुरु-शिष्य युद्ध का साक्ष्य बना
सिन्दूरी हो पाया न किन्तु
था उसी कुँवारी का सपना।

संग्राम शिष्य-गुरु का तेईस दिन
चला, न निर्णय हो पाया,
बलिदान हो गये कोटि वीर
पर कुछ भी हाथ नहीं आया।

संकट कट सका नहीं तिलभर
संकट पर संकट जाग उठे,
हो गये हाल-बेहाल वीर
प्राणों की भिक्षा माँग उठे।

कुछ प्रश्न रह गये अनुत्तरित
कुछ बहे रक्त की धारा में,
कुछ तलवारों की भेंट चढ़े
कुछ भटके निर्मम कारा में।

जीवन तो खुद है महाप्रश्न
जो अनुत्तरित ही रहा सदा,
पलभर भी ठहर नहीं पाया
विकराल काल में बहा सदा।

बह रहा झूलता सुख दुखमय
अविकार काल की बाहों में।
संघर्ष घातप्रतिघात सहे
पग-पग पर अपनी राहों में।

यह युद्ध शक्ति के दर्शन का
अवसर अवश्य ले आता है,
पर जाता है तो प्रलयकाल की
परिभाषा दे जाता है।
यह युद्ध रंग सब जीवन का
कर भंग उमंग मिटाता है,
आँसू के खारे सागर में
खुशियों के कमल डुबाता है।

यह युद्ध सुदृढ़ निज दाढ़ों से
जीवन के रत्न चबाता है।
यह युद्ध तप्त निःश्वासों से
जीवन का दिया बुझाता है।

रण उत्सव का परिणाम देख
अनिमेष रह गये धरा-गगन।
तन काँप् उठा थर-थर थर थर
मन में हो उठा घोर कम्पन।

धरती के रक्तिम श्लोक बाँच
नयनों के सागर डोल उठे,
जीवन में संकट के बादल
पीड़ा की धारा घोल उठे।

उठ रहें मृत्यु के झोंकों में
सिन्दूर लुट रहा माँगों का,
लुट रहे रत्न थे ममता के
लोहू बह रहा अभागों का।

दुर्देत्य युद्ध की विभीषिका
विकराल काल-सी झूम उठी,
लथपथ लोहू से अंग-अंग
वह मानवता के चूम उठी।

फिर-फिर शोणित में डूब-डूब
हो गयी विकट विकराल धरा,
अनुचरी युद्ध की महामृत्यु
कर गयी लूअ कंगाल धरा।

उपहार अश्रु के आँखों को
शवदाहों के दुख दृश्य मिले,
पथरायीं आँखे रो-रोकर
हाहाकारों से किले हिले।

अवलम्ब मनुजता का जीवन
जीवन में आग लगाता है।
यह युद्ध प्रगति सोपान सभी
क्षणभर में चट कर जाता है।

त्लवारों से कुछ कम जूझा
फिर लड़ा बहुत पीड़ाओं से।
आधियों-व्याधियों से जकड़ा
जकड़ा खारिल धाराओं से।

यौवन की मधुर बहारों को
झकझोर दिया पतझारों ने,
अधराधर कलियों के कोमल,
कर दिये राख अंगारों ने।

जल उठी होलिका ममता की
शोकाकुल थे सब दिग्दिगन्त।
आमने-सामने देख हुई व्याकुल
जीवन का आदि-अन्त।

निज आन-मान अभिमान हेतु
कितने निर्दोष चबा डाले।
कितनों को वंश विहीन किया
कितनों के वंश मिटा डाले।

आँसू से भीगी धरा कहीं
तो कहीं रक्त से स्नात हुई
क्षणभर को कहीं प्रकाश हुआ
तो कहीं युगों की रात हुई।

बच्चे अनाथ भूखे नंगे
किस तरह जियेंगे रो-रोकर
फट रहा कलेजा धरती का
विधवाओं की चीखें सुनकर।

यह युद्ध प्रेम की परिभाषा
यदि कहीं ठीक से पढ़ पाता,
तरकों सहित अम्बर सहर्ष
तो भू पर स्वयं उतर आता।

क्या दिया युद्ध ने, रोग, दैन्य
कुण्ठाओं के उपहार हार।
रक्तिम धारों के बीच
बिलखते प्राणों की आकुल पुकार।

क्या दिया युद्ध ने सर्जन पंथ
कर ध्वस्त नाश के लिखे श्लोक,
बेवश निरुपाय क्रन्दनों में
खो गया शान्ति का मधुर लोक।

क्या दिन युद्ध ने नयनों को
खारे-से निर्झर बस निर्झर।
ज्ीवन से जीवन रूठ गया
ढह गया हाय! आलोक-शिखर।

क्या दिया युद्ध-युद्ध ने जीवन की
धारा को कर अवरूद्ध दिया,
आलोकित उन्नति के पथ का
मंगल मनोज बुझ गया दिया।

क्या दिया युद्ध ने धरती को
वीरान बनाया बार-बार,
मरघट की लपटों में देखा
जल रहा धरित्री का सिंगार।

क्या दिया युद्ध ने जीवन को
सूनापन घुटन जलन चिन्तन
आमरण मृत्यु की ज्वाला में
जल जाने को तिल-तिल तन-मन।

क्या दिया युद्ध ने गिद्ध, काक,
चीलों, श्वानों को भोग-भाग।
उजड़े-उजड़े घर गाँव मौन
अभिलाषाओं पर गिरी आग।

मन की धरती से धरती तक
रण उत्सव नित्य प्रचण्ड रहा,
यह जीवन ही है युद्ध,
जिसे लड़ता मनुजात अखण्ड रहा।

यह विचाारों तक सीमित
यदि रहता तो खुश रहते हम,
तलवारों तोपों गोलों का
विध्वंस भला क्यों सहते हम?

हम नर हैं नर से लड़कर तो
प्रतिशोध चुकाया करते हैं,
पर भीतर बैठे हुए शत्रु से
अति घबराया करतें हैं।

लड़ना ही है यदि नर तुझको
तो काम क्रोध से लड़कर मर,
लड़ना ही है यदि नर तुझको
तो अहंकार को जर्जर कर।

लड़ना ही है यदि नर तुझको
तो निज मन से संग्राम करो,
फहरा दो विजय केतु पावन
जीवन अपना अभिराम करो।

तलवारों तोपों से जीती जगती
सब जीते दिग्दिगन्त।
पर खुद को जीत नहीं पाया
पाया दुखदायी घोर अन्त।

जो शक्ति सर्जन के लिए मिली
वह ध्वंस धर्म अपनाती है
फिर पश्चातापों से घिरकर
आँसू-आँसू हो जाती है।

अज्ञान शक्ति के मद में पड़
सत्पथ से मनुज भटकता है,
फिर अन्त समय में पछताता
सिर अपना व्यर्थ पटकता है।

यदि शक्ति मिली है हम सबको
उन्नयन करें सद्भावों का,
साधना खड्ग लें उठा
अन्त कर दें सब द्वेष-दुरावों का।

दीनों के दुखड़ों पर टूटो
खुशियों के दो उपहार परम,
दारिद्र देश का धो डालों
सेवा का धारण करो धरम।

यदि नहीं गरीबी बेकारी
मिट सकी धरा से जीवन में,
तो सकी भविष्य के मन्दिर में
सुख होगा सोच न निज मन में।

जीता न कहीं कोई, सबके
संकल्प अधूरे छूट गये,
अम्बा की आशा के सपने
थे एक बार फिर टूट गये।

पश्चात्तापों की धाराएँ
लहरायीं थी उर अन्तर में,
" धरती की लुटती रही माँग
मैं रही देखती संगर में।

कामना राक्षसी ने मेरी
कितनों को भक्षण कर डाला,
कितनों का सब कुछ चबा गयी
कितनों पर चिर संकट डाला।

कामना विसर्जित कर पाती
तो नहीं ंनाश लीला होती।
लाशों से पटती नहीं मही
रक्तिम आँसू भर क्यों रोती?

मैं अपराधनी जगत की हूँ
दुख-दण्ड सदा ही पाऊँगी।
पर भीष्म समय आने पर
तुमको काल पाश दिखलाऊँगी। "

लोहू से लथपथ परशुराम
बोले अम्बासे करुण वचन-
पुत्री! जो मेरे वश का था
वह मैंने पूरा किया कथन।

पर तेरी अमिट भाग्य रेखा
लड़कर भी मिटा नहीं पाया,
मैं नहीं भीष्म को जीत सका
जगभर को जबकि जीत आया।

है साथ तुम्हारे शुभाशीष
जो ब्राह्मण का अपना धन है।
इसके अतिरिक्त धरित्री पर
उसका न कहीं कुछ साधन है।

हे ऋषे! जगत में सब कुछ है
आधीन एक सर्वेश्वर के।
नर की तो अपनी सीमा है
मन का होता अखिलेश्वर के।

है इच्छा यही जगतपति की
पर मैं न हार स्वीकारूँगी।
उत्थान-पतन का कालचक्र
देखँूगी राह निहारूँगी।

है अभी भीष्म का भाग्य प्रबल
इसलिए अजय-सा लगता है,
रहता न भाग्य का रूप एक
घटता है क्षण में बढ़ता है।

सन्नद्ध रहेंगे अस्त्र-शस्त्र
कब तक जीवन के रक्षण में?
तप से वह जीता जाता है
जो अविजित रहता है रण में।

मैं भीष्म नाश के लिए
कठिन तप करके शक्ति जुटाऊँगी।
भीतर बाहर देवव्रत के
ज्वाला कराल धधकाऊँगी।

ळोकर समर्थ सब भाँति
भीष्म हित कर न किसी का पायेगा
है वीर किन्तु बन अर्थदास
जीवन को व्यर्थ गँवायेगा।

जिस राजवंश की प्रगति हेतु
कर दिया नष्ट मेरा जीवन
उसको ही होता नष्ट देख
तिल-तिल कर झुलसेगा तन-मन।

वेदना-शरो से बिधा हुआ
निश्चल-सा शुष्क शरीर लिये,
कामना मुक्ति की निराधार
प्राणों में अक्षय पीर लिये।

इस रक्त रंजिता धरती पर
स्वागतम् मृत्यु का करने को,
तैयार रहो हे भीष्म!
काल के हाथों यहाँ बिखरने को।

मेरे उर-अन्तर में अखण्ड
जल रही चिता है धू-धूकर
बाहर ज्वालाओं का संकुल
ले देख भीष्म! मुझको छूकर।

अब भाग कहाँ तक भागेगा
देखूँ कैसे बच पायेगा?
उत्तप्त अश्रु की धारा में
गिरकर तिल-तिल जल जायेगा।

दुहराती हूँ संकल्प धरा-
अम्बर साक्षी हैं दिग्दिगन्त,
मेरे जीवन का लक्ष्य एक
है भीष्म! तुम्हारा दुखद अन्त

सहकर अम्बा के शब्द घात
चल दिये भीष्म लतपथ काया,
अपराध बोध से दबा हृदय
कब क्षमा स्वयं को कर पाया?

निज आश्रम लौटे परशुराम
अपमान दग्ध था अन्तस्तल,
क्षत्रिय को विद्या मैं न कभी
अब दूँगा प्रण कर लिया अटल।

करता कोई अपराध, दण्ड
कोई उसका जग में पाता,
अन्यथा कर्ण क्यों अर्जुन से
रणकला भूल मुँह की खाता।