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परस का संग / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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कोरे ही हाथों से मल जा चटक नेह का रंग,
तरस रहीं लालायित गालें मिले परस का संग .

मधुर खेल जी भर कर खेलो,
ले लो निज बाहों में ले लो ,
कर डालो अपनी मनमानी रह जाएं सब दंग .
तरस रहीं लालायित गालें मिले परस का संग ..

सरल हँसी की बरसातों में ,
भीगूँ मैं तेरी बातों में ,
कतराओ मत, इस फागुन में लाज हुई है नंग .
तरस रहीं लालायित गालें मिले परस का संग ..

ऐसा मिले ना मिले मौक़ा ,
चुम्बन - रंग चढ़े अधरों का ,
साध करो पूरी जीवन के रँग डालो सब ढंग .
तरस रहीं लालायित गालें मिले परस का संग ..

धो- धो मर जाऊं उतरे ना ,
फिर यह देह कभी निखरे ना ,
ज्यों - ज्यों रंग छुडाऊँ तेरा, अधिक खिले हर अंग .
तरस रहीं लालायित गालें मिले परस का संग..

(आ गीत कातें री! १९९३)