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पराजित हो गये / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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लो पराजित हो गए

लो पराजित हो गए फिर
कँपकपाते दिन

ढोलकों की थाप पर
गाने लगा फागुन
बज उठी मंजीर खँझरी
पर सुहानी धुन

आ गये मिरदंग ढफ
झाँझें बजाते दिन
  
खिल उठे फिर ढाक, सेमल
के अरूण हो गात
आ गए श्रीहीन तरूओं
पर सुकोमल पात
  
छू गए मन को बसन्ती
गुनगुनाते दिन

बोल मुखरित हो उठे
फिर नेह सरगम के
कसमसाने लग गए
जड़-बन्ध संयम के

आ गए फिर प्यार का
मधुरस लुटाते दिन