Last modified on 11 अप्रैल 2010, at 19:45

परिंदा जब भी कोई चीख़ता है / जयंत परमार

परिन्दा जब भी कोई चीख़ता है
ख़ामोशी का समुंदर टूटता है

अभी तक आँख की खिड़की खुली है
कोई कमरे के अंदर जागता है

चमकती धूप का बेरंग टुकड़ा
अकेला पर्वतों पर घूमता है

घने जंगल से लेकर घाटियों तक
हवा का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है

गली के मोड़ पर तारीक कमरा
हमारी आहटें पहचानता है

बुलंद आवाज़ में कहती हैं लहरें
समुंदर दो किनारे जोड़ता है।