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परिकल्पित सच / स्मिता सिन्हा

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दरअसल ये सिर्फ तुम्हारी सोच थी
कि ये लड़ाई उनके बीच की है
और तुम हो निर्णायक भूमिका में
देखा तुमने
कैसे खड़े थे वे आमने सामने
अपने अपने परिकल्पित सच को लेकर
तमाम संदर्भित विमर्शो के साथ
ऐसा सच
जिसके तलुवों से लहू रिस रहा था
और जो लगातार बना रहे थे
सदियों तक अमिट रहने वाले
सैकड़ों रक्तरंजित पदचिन्ह
तुम्हारी नज़रों के सामने
 टूट टूटकर बिखरता रहा सच
और तुम बस खामोश देखते रह गये

आज जब वक़्त बेचैन है
और बेबस भी
तुम यूँ नेपथ्य में नहीं रह सकते
क्योंकि शुरू से अंत तक
सिर्फ़ तुम ही अभिमंचित रहे हो
इस कथानक में...