परिचय शतकसँ / काशीकान्त मिश्र 'मधुप'
एक टूटल तार छी हम।
चाखिकेँ जे देश-सेवा-रूप सतत अनूप मेवा,
अण्डमनमे प्राण खेबा करथि देबाकेर टेवा
ताहि वीरक हेतु घेरल कठिन कारागार छी हम।
ठाढ़ भरि दिन खेत कोड़थि, रौदसँ नहि मूँह मोड़थि,
हाय बिनु अपराध जोड़थि, देह मालिक हेतु ओड़थि,
जे तही दुर्बल गृहस्थक नोन रोटिक थार छी हम।
विश्व उठितहु जे न जागथि, सुनि स्वदेशक गीत भागथि,
उच्च ज्ञनहु कष्ट पाबथि, मूँह बिनु अधिकार बाबथि,-
झुनझुनीसँ स्थग्न ताहि, समाजकेर खुराड़ छी हम।
देखि पातकमय महीतल, दीन नोरेँ भूमि तीतल,
भारसँ ब्रह्माण्ड डगमग, चिक्करथि दिग्गज खसै नग,
ताहि कालक प्रलय-सूचक क्रुद्ध हर हुंकार छी हम।
व्रत जतै छल भेल जौहर, गीत स्वातन्त्र्यैक घर घर,
चेतकाश्वक तीर्थ पावन, जतै पुत्र प्रताप सन धन,
आइ पारस्परिक द्रोहेँ से पतित मेवाड़ छी हम।
चूसि आनक रक्त जे जल, अपन कोष भरैछ सदिखन,
लै प्रजासँ कर निरन्तर, दुरुपयोग करैछ सत्वर,
ताहि रक्षक रूप भक्षककेर सतत अहार छी हम।
जे प्रजाकेँ देथि पीड़ा, रक्त चूसक जोँक कीड़ा,
देथि कागज लूटि हीरा, मारसल्लोकेँ कु क्रीड़ा,
कूट नीतिक कुटिल कोविद से वृटिश सरकार छी हम।
देश-जे अछि स्वार्थ परवश, विश्व जकरा देखिकेँ हँस,
ओत दबि घसमोड़ि सूतथि, छाँह नरहुक लागि छूतथि,
जाहिठामक लोक ताहीठम बसि लाचार छी हम।
जे करथि निर्माण देशक, ज्योति छात्र-प्रदीप लेसक,
पाबि सब सँ अल्प वेतन, तन रहैत प्रतीत वे-तन,
पैंच मात्र तकैत ताही शिक्षकक परिवार छी हम।
एक टूटल तार छी हम।