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परिचय / अमरेन्द्र

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मेरा परिचय, घने नगर में उजड़ा-सा एक गाँव
सबसे अलग, अकेला सब में और अजूबा भेष
दिल्ली से जो दूर बहुत हो, सपना: भारत देश
बियावान ऐसा, जिस पर हो नग्न वृक्ष की छाँव ।

सावन में पछिया के ढंग से टूटी हो दीवार
छप्पर से दिखते हैं काले मेघ, कड़कती बिजली
ठाकुरबाड़ी के पिण्डे पर जमी हुई है कजली
उँगली पर साँसांे का गिनना; जीवन के दो-चार ।

तन क्या, मन भी ऐसा, जैसे, टूटा खाट-खटोला
औसारे से सटे टँगा हो, झोंलगा । टूटी रस्सी
उम्र हो गयी ऐसी, जैसे साठ साल पर अस्सी
उम्मीदों की पँचबहनों में इक भी नहीं अझोला ।

तन पर रखी जवानी, ऐसी, ज्यों, कमीज दो फाँक;
उखड़ गये हों जगह-जगह से सीअन, सूते, टाँक ।