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परिचित आवाज़ / मिथिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
परिचित आवाज़ें डराती हैं
डराती है बादलों से गिरी हुई बिजली
कँपाता है दूसरी मँज़िल पर बन्द होता दरवाज़ा
पहली मँज़िल का मेरा घर
खेलते हुए बच्चे की गेंद की धब-धब
निचली मँज़िल में फैलाती है लगभग आतंक
दौड़कर भागते हुए क़दमों की आहट
दरवाज़ा खटखटाए जाने का खटका
बैठा जाती है मन में हर रात
दूसरी मँज़िल से पहली मँज़िल पर आती हुई
आवाज़ कहीं दूर से आती हुई लगती है
दूर कहीं बूढ़ी हो रही एक माँ है
एक बेरोजगार भाई है जो घर
देर से लौटता है या किसी रात
लौटता ही नहीं है
लौटकर बिस्तर में लेट जाता है
सपना देखने और नींद में बड़बड़ाने से
बचना चाहता है
इन सबकी भी होती है अपनी आवाज़ ।