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परिछन / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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228.

वर ऐके सुन्दर वरनि न जावै देखलाँ मेँ आँगन माँझ है।
हियर हरष भैल जियर जुडाय गैल दियर लेसन जनु साँझ हे॥
आइ रे माइ! हे पार-परोसिन! करहु मंगलाचार हे।
एक हथे धरहु सोने कै लोढवा, दुसरे रुपेकर थार हे॥
मुठियन भरि भरि मोतियाकै आछत, दुहु दिसि देहु छितराय हे।
तुलसी चंदन दिसे वन्दन, दहि देहु मुख लपटाय हे।
अरिछि परिछि वर कोहवर लावहु, पइति सुतावहु सासु हे।
धरनीश्वर सँग जे धनि पोढ़लि, जन्म सुफल भैल तासु हे॥1॥

229.

हम अँधारा की अँधरा लोग। सो अँधरा जाके शंसय सोग।
सो अँधरा जाके जियहिँ न दाया। अपनी वाट काँट जिन लाया।
सो अँधरा जिन भक्ति न कीया। कर्म-भार अपने शिर लीया।
सो अँधरा जेहि राम न सूझै। धरनी वचन साधु जन बूझै॥2॥

230.

दुर्मति तजहु भजहु देवि दुर्गा। देरी भेरी महिष न मुर्गा।
काय भितर कलसा धरु जानी। सुमति सकल पछ सुरति सुयानी॥
रचि पचि ज्ञान-गोवर चहुँ फेरा। जियकि दया जौ बोवहु सवेरा॥
प्रेम प्रकाश उपर धरु दियरा। दुर जनि रमहु रहहु वके नियरा।
धरनि कहत जे ऐसन विदानी। ताके मुँह मुँह बोल ति भवानी॥3॥

231.

हरिजन के गुन सुनहु रे भाई। नख शिख तन मन शीतलताई॥
सोवतहँते चौंकि जन जागा। पाँच पचीस उलटि सँग लागा।
सत गुरु वचन भवो इतवार। हरि भीतर बाहर संसार॥
दूजे द्वार कबहिँ नहि जाई। घरि घरि निरखि निरखि हुलसाई॥
धरनी कहै सुनो सब कोई। जो हरि करै तो ऐसा होई॥4॥