परिमेय संख्याओं के जलसे में योगरूढ़ संख्या का अरण्यरोदन / सूरज
यौगिक, सम, विषम
अपने लिये सब ख़तम
अपने गुणत्व से हरी, भाजक गुणों से लदी-फदी
तमाम यौगिक, सम, विषम संख्याएँ कर रही होती
दूसरी संख्याओं से प्रेम, उनकी चुहलबाज़िया
मशहूर क़िस्से की तरह दुहराती हैं ख़ुद को जैसे
बत्तीस लहरा रहा होता है दो, चार, आठ, सोलह
से चले अपने प्रेमिल क़िस्से
जैसे छत्तीस में शामिल तीन और छह के सारे झगड़े
नहीं कर पाते उन्हें अलग, छत्तीस के आँकड़े का मुश्किल
मुहावरा भी।
तीन और छह के मशहूर चुम्बन से उपजता तिरेसठ
जहाँ सात किसी डरे जानवर की तरह आता है,
वहीं,
ठीक वहीं
हम योगरूढ़ संख्याएँ अपने ही असीम एकांत में सिमटी हैं
परिभाषा ने हमें किया पद-दलित तुम्हें दिया ठौर
हमें नवाजा ख़ुद के ही भाज्य और ख़ुद के ही भाजक
बन जाने के शाप से
संख्याओ की इतनी विशाल जनसंख्या में
कोई दूसरी संख्या नहीं कर सकती सम्पूर्ण हमें
चुभता है दशमलव प्रेम की हर अतृप्त और
दंडनीय आकांक्षा के सिरहाने
हँसता है क्रूर वह
मुझे टुकड़ों में बाँट
हम अभिशप्त हुए कुछ इस तरह
ख़ुद में जीते ख़ुद ही में शेष होते
ख़ुद से ही विभाजित होंगे का यह
अभिशाप अकथनीय दु:ख है।
रहा एक-
एक ‘ईश्वर की तरह’ सबका है
और किसी का भी नहीं
‘दो’
छह और आठ से मिल आती है
होली-दीवाली की तरह पहाड़े में
मैं अकेला सात ख़ुद का ही भाजक ख़ुद से ही भाज्य
यह क्या ज़रूरी नहीं अधिकार मुझे
किसी संख्या से विभाजित होती जाऊँ
तब तक जब तक ना बचे कोई शेषफल
बचे सिर्फ़ शून्य,
पूर्ण विभाजित मैं उस स्त्री के असीम आनन्द को पाऊँ
जिसने जन्मा हो अभी अभी स्वस्थ बच्चा भागफल की तरह,
जिसे वो माँ चाहती हो निहारना अपलक; होते हुए अशेष
यह अपलक की निहार किसी शेषफल के होते सम्भव नहीं
किसी दशमलव की ज़रूरत नहीं
बार-बार
हर बार
क्यों चला आता है दशमलव हमारे एकाग्र उत्सव को क्षत-विक्षत
करने; मज़बूर किया हमें अपना ही अंश दशमलव के पार रखने पर
हर बार
बार-बार
क्या तुम्हारी इंसानी आँखों में ऐसी
बूँद भी नहीं जो धुले मेरे खंडित जीवन
से दशमलव – जिसके पार पड़ा
मेरा लगभग आकाश
असीम इच्छाओं की खोह