परिवर्तन - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
टपकता ही रहता है क्यों,
पड़ा कैसे दिल में छाला;
उँजेले में क्यों रहता है
सामने दृग के अँधियारा?
फूल खिल-खिल हँस-हँस करके
लुभा लेते थे दिल मेरा;
आँख उन पर पड़ते ही क्यों
दुखों ने मुझको आ घेरा?
महँकती हवा पास आए
थिरकने लगती थीं चाहें;
अहह! उसके आते ही क्यों
आज निकलीं मुँह से आहें?
कली का मँह जब खुल जाता,
बड़ी प्यारी बातें कहती;
रंगतें बदलीं, तो बदलीं,
किसलिए है वह चुप रहती?
देखकर फूली लतिकाएँ
ललचती रहती थीं ललकें,
उन्हें अवलोकन कर अब तो
उठ नहीं पाती हैं पलकें!
प्यार मैं करती चिड़ियों को,
गले से गला मिला गाती;
उन्हीं का मीठा गाना सुन
क्यों धड़क उठती है छाती?
बहुत आँखें सुख पाती थीं
देख अलि को देते फेरी;
आज उनके अवलोके क्यों
फूटती हैं आँखें मेरी?
दिन रहे कितने चमकीले,
रात भी कालापन खोती;
भर गया क्यों अब उनमें तम,
आग क्यों रजनी है बोती?
क्यों नहीं पहले ही का-सा
लहर में सुख की बहता है;
किसलिए किस उलझन में पड़
जी उड़ा मेरा रहता है?
खिले फूलों-जैसा जो था,
हुआ कैसे काँटा वह तन;
आँख जलती है जल बरसे,
हो गया कैसा परिवर्तन?