परिवर्तन - 2 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
भरा आँखों में था जादू,
हँसी होठों पर थी रहती;
बात टूटी-फूटी कहते,
किंतु रस-धारा-सी बहती।
गोद में बैठे रहते थे,
लोग थे मुँह चूमा करते;
स्वर्ग था तब घर बन जाता,
जब कभी किलकारी भरते।
बलाएँ माता लेती थी,
पिता मुझ पर बल-बल जाता।
दूसरे लोगों के मुँह से
प्यार का पुतला कहलाता।
जिधर आँखें मेरी फिरतीं,
समा न्यारा पाया जाता;
लबालब रस का प्याला भर
छलकता ही था दिखलाता।
गये जब ये दिन तब मैंने;
अजब अलबेलापन पाया;
चाँद-जैसा मुखड़ा चमका,
बनी कुंदन की-सी काया।
उमंगें उठीं बादलों-सी,
तरंगें लगीं रंग लाने;
हुई मिट्टी छूते सोना,
रस लगे मिलने मनमाने।
चाहतें कितने लोगों की
पिरोती थीं हित के मोती;
रीझती मुँह देखे दुनिया,
निछावर परियाँ थीं होतीं।
सामने सुख-निधि लहराता,
हाथ आ जाता था पारस;
कारबन में मिलता हीरा,
कब कहाँ जाता हुन न बरस?
हुए क्या ऐसे सुंदर दिन,
काल ने मुझको क्यों लूटा।
किसलिए सारा तन सूखा,
पक गये बाल, दाँत टूटा।
बात सुन कान नहीं सकता,
आँख की जोत रही जाती;
बेतरह जी घबराता है,
रात में नींद नहीं आती।
पाँव कँपता ही रहता है,
हाथ में हाथ नहीं अपना;
नहीं मन मन की कर पाता,
हो गया तन का सुख सपना।
बात क्या बाहरवालों की,
नहीं सुनते हैं घरवाले;
बात ऐसी कह देते हैं,
पड़े जिससे दिल में छाले।
न लड़के-बाले हैं अपने,
न अपना धान है अपना धान;
समय भी रहा नहीं अपना;
हो गया कैसा परिवर्तन?