भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परिवर्तन / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसम बदला है
तुम बदले
या मैं ही बदला हूँ
एक पहेली है
सुलझाता हूँ
गीतों में गाकर।

एक-एक कर
झरी पत्तियाँ
डाल-डाल मुरझाई
जाने कब से इस बगिया की
कली नहीं मुस्कायी
बादल से पानी माँगा था
सागर उफन पड़े हैं
जलते हुए रेत पर प्यासे
तपते रहे खड़े हैं
कहाँ भरम लेकर जाएँगे
कहाँ मुक्ति
पटकेगी जाकर।
बरगद थे
अब ठूँठ हो गए
पाँखी दूर गए हैं
उजड़े नीड़
छाँव सिर पटके
दुर्दिन नए-नए हैं
छाती पर धरकर पोषा था
उँगली पकड़ चलाया
काँधों धरा
पीठ पर लादा
रहे धूप और छाया
फेंक दिया उनने
कबाड़ सा
घर के बाहर लाकर।

नियति तुम्हारी
युग-धारा के
साथ-साथ बहना है
सौ सौ बार यहाँ जीना है
सौ सौ बार यहीं मरना है
देने को, रह गयीं दुआएँ
पाने को धिक्कार-उपेक्षा
इससे अधिक प्राप्त करने की
और करोगे
कौन अपेक्षा?
स्वर्ग लोक के शिला पटल पर
नाम कौन
आया लिखवाकर?