भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परिवेश: एक जलता हुआ भट्ठा / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब-तब
लोहे की लम्बी छड़ों से
झरोखों के इस्पाती ढक्कनों को
खोलकर
अदृश्य छाया-कर
अनुमानते हैं-
पकने की स्थितियाँ
नीली मिट्टी की तरह बिछा हुआ
आसमान,
धुआँ उगलती चिमनियाँ,
दैत्याकार जबड़े फैलाती
अग्नि-लपटों पर
रखी गईं कच्ची ईंटे: मैं, तुम, वे
परिवेश: एक जलता-
हुआ भट्ठा।