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परिशिष्ट-18 / कबीर

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प्रहलाद पठाये पठन साल। संगि सखा बहु लिए बाल॥
मोकौ कहा पढ़ावसि आल जाल। मेरी पटिया लिखि देहु श्रीगोपाल॥
नहीं छोड़ौ रे बाबा राम नाम। मेरो और पढ़न स्यो नहीं काम॥
संडै मरकै कह्यौ जाइ। प्रहलाद बुलाये बेगि धाइ॥
तू राम कहन की छोडु बानि। तुझ तुरत छड़ाऊँ मेरो कह्यो मानि॥
मोकौ कहा सतावहु बार बार। प्रभु भज थल गिर किये पहार॥
इक राम न छोड़ौ गुरुहि गारि। मोकौ घालि जारि भाखै मारि डांरि॥
काढ़ि खड्ग कोप्यो रिसाइ। तुझ राखनहारो मोहि बताइ॥
प्रभु थंभ ते निकसे कै बिस्तार। हरनाखस छेद्यो नख बिदार॥
ओइ परम पुरुष देवाधिदेव। भगत हेत नरसिंघ भेव॥
कहि कबीर का लखै न पार। प्रहलाद उबारे अनिक बार॥141॥

फील रबाबी बलुद पखावज कौआ ताल बजावै।
पहरि चोलना गदहा नाचै भैसा भगति करावै॥
राजा राम क करिया बरपे काये। किनै बूझन हारे खाय॥
बैठि सिंघ घर पान लगावहिं घीस गल्योरे लावै॥
घर घर मुसरी मंगल गावहि कछुआ संख बजावै॥
बंस को पूत बिआहन चलिया सुइने मंडप छाये॥
रूप कन्निया सुंदर बेधी ससै सिंह गुन गाये॥
कहत कबीर सुनहु रे पंडित कीटी परबत खाया॥
कछुआ कहै अंगार भिलोरौ लूकी सबद सुनाया॥142॥

फुरमान तेरा सिरै ऊपर फिरि न करत बिचार।
तुही दरिया तुही करिया तुझै ते निस्तार॥
बंदे बंदगी इकतीयार। साहिब रोष धरौ कि पियार॥
नाम तेरा अधार मेरा जिउ फूल जइहै नारि॥
कहि कबीर गुलाम घर का जीआइ भावै मारि॥143॥

बंधचि बंधनु पाइया। मुकतै गुरि अनल बुझाइया।
जब नख सिख इहु मनु चीना। तब अंतर मंजनु कीना॥
पवन पति उनमनि रहनु खरा। नहीं मिसु न जनमु जरा।
उलटौ ले सकति संहार। फैसीले गगन मझार॥
बेधिय ले चक्र भुअंगा। भेटिय ले राइन संगा॥
चूकिय ले मोह मइ आसा। ससि कीनो सूर गिरासा॥
जब कुंभ कुभरि पुरि जीना। तब बाजे अनहद बीना॥
बकतै बकि सबद सुनाया। सुनतै सुन माल बसाया॥
करि करता उतरसि पारं। कहै कबीरा सारं॥144॥

बटुआ एक बहत्तरि आधारी एको जिसहि दुबारा।
नवै खंड की प्रथमी माँगै सो जोगी जगसारा॥
ऐसो जोगी नव निधि पावै तल का ब्रह्म ले गगन चरावै॥
खिंथा ज्ञान ध्यान करि सूई सबद ताग मथि घालै॥
पंच तत्व की करि मिरगाणी गुरु कै मारग चालै॥
दया फाहुरी काया करि धूई दृष्टि की जलावै॥
तिसका भाव लए रिद अंतर चहु जुग ताड़ी लावै॥
सभ जोगत्तण राम नाम है जिसका पिंड पराना।
कहु कबीर जे किरपा धारै देइ सचा नीसाना॥145॥

बनहि बसे क्यों पाइये जौ लौ मनहु न तजै बिकार॥
जिह घर बन समसरि किया ते पूरे संसार॥
सार सुख पाइये रामा रंगि रवहु आतमै रामा॥
जटा भस्म लै लेपन किया कहा गुफा महि बास॥
मन जीते जग जीतिया ते बिषिया ते होइ उदास॥
अंजन देइ सब कोई टुक चाहन माहिं विडानु॥
ज्ञान अंजन जिह पाइया ते लोइन परवानु॥
कहि कबीर अब जानिया गुरु ज्ञान दिया समुझाइ॥
अंतर मति हरि भेटिया अब मेरा मन कतहु न जाइ॥146॥

बहुत प्रपंच करि परधन ल्यावै। सुत दारा पहि आनि लुटावै॥
मन मेरे भूले कपट न कीजै। अंत निबेरा तेरे जोय पहि लीजै॥
छिन छिन तन छीजै जरा जनावै। तब तेरी ओक कोई पानियो न पावै॥
कहत कबीर कोई नहीं तेरा। हिरदै राम किन जपहि सबेरा॥147॥

बाती सूखी तेल निखूटा। मंदल न बाजै नट सूता॥
बुझि गई अगनि न निकस्यो धूआ। रवि रह्या एक अवर नहीं दूजा॥
तूटी तंतु न बजै रबाव। भूलि बिगरो अपना काज॥
कथनी बदनी कहन कहावन। समझ परी तो बिसरौं गावन॥
कहत कबीर पंच जो चूरे। तिनते नाहिं परम पद दूरे॥148॥

बाप दिलासा मेरो कीना। सेज सुखाली मुखि अमृत दीना॥
तिसु बाप कौ मनहु बिसारी। आगे गया न बाजी हारी॥
मुई मेरी माई हौ खरा सुखाला। पहिरौ नहीं दगली लगै न पाला॥
बलि तिसु बापै जिन हौ जाया। पंचा ते तेरा मेरा संग चुकाया॥
पंच मारि पावा तलि दीने। हरि सिमरन मेरा मन तन भीने॥
पिता हमारो बहु गोसाई। तिसु पिता पहिं हौ क्यों करि जाई॥
सति गुरु मिले ता मारग दिखाया। जगत पिता मेरे मन भाया॥
हौ पूत तेरा तू बाप मेरा। एकै ठाहरि दुहा बसेरा॥
कह कबीर जनि एको बूझिया। गुरु प्रसाद मैं कछु सूझिया॥149॥

बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कियो।
तीस बरस कछु देव न पूजा फिर पछुताना बिरध भयो॥
मेरी मेरी करते जनम गयो। साइर सोखी भुंज बलयो॥
सूके सरबर पालि बँधावै लूणे खेत हथवारि करै॥
आयो चोर तुरत ही ले गयो मेरी राखत मुगध फिरै॥
चरन सीस कर कंपन लागे नैनों नीर असार बहै॥
जिहिवा बचन सुद्ध नहीं निकसै तब रे धरम की आस करै॥
हरि जी कृपा करि लिव लावै लाहा हरि हरि नाम लियो॥
गुरु परसादी हरि धन पायो अंते चल दिया नालि चल्यो॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अन धन कछु ऐलै न गयो।
आई तलब गोपाल राइ की माया मंदर छोड़ चल्यौ॥150॥

बावन अक्षर लोक त्राय सब कछु इनहीं माहि।
जे अक्खर खिरि जाहिगे ओइ अक्खर इन महिं नाहिं॥

जहाँ बोल तह अक्खर आवा। जहँ अबोल तहं मन न रहावा॥
बोल अबोल मध्य है सोई। जस ओहु है तस लखै न कोई॥

अलह लहौ तौ क्या कहौ कहौ तो को उपकार।
बटक बीजि महि रबि रह्यौ जाको तीनि लोक बिस्तार॥
अलह लहता भेद छै कछु कछु पाया भेद।
उलटि भेद मन बेधियो पायो अभंग अछेद॥॥
तुरक तरीकत जानियै हिंदू बेद पुरान॥
मन समझावन कारनै कछु यक पढ़ियै ज्ञान॥

ओअंकार आदि मैं जाना। लिखि और मेटै ताहि न माना॥
ओअंकार लखै जो कोई। सोई लखि मेटणा न होई॥
कक्का किरणि कमल महि पावा। ससि बिगास संपट नहिं आवा॥
अरु जे तहा कुसुम रस पावा। अकह कहा कहि का समझावा॥
खक्खा इहै खोड़ि मन आवा। खोड़े छाड़ि न दह दिसि धावा॥
खसंमहिं जाणि खिसा करि रहै। तो होइ निरबओ अखै पद लहै॥
गग्गा गुरु के बचन पछाना। दूजी बात न धरई काना॥
रहै बिहंगम कतहि न जाई। अगह गहै गहि गगन रहाई॥
घघ्घा घट घट निमसै सोई। घट फूटे घट कबहिं न होई॥
ता घट माहिं घाट जौ पावा। सो घट छाँड़ि अक्घट कत धावा॥

डंडा निग्रह सनेह करि निरवारो संदेह।
नाही देखि न भाजिये परम सियानप एह॥

चच्चा रचित चित्र है भारी। तजि चित्रौ चेतहु चितकारी॥
चित्र बिचित्र इहै अवझेरा। तजि चित्रौ चितु राखि चितेरा॥
छछ्छा इहै छत्रापति पासा। छकि किन रहहु छाड़ि किन आसा॥
रे मन मैं तो छिन छिन समझावा। ताहि छोड़ि कत आप बधावा॥
जज्जा जौ तन जीवत जरावे। जीवन जारि जुगति सो पावै॥
अस जरि परजरि जरि जब रहै। तब जाइ ज्योति उजारी लहै॥
झझ्झा उरझि सुरझि नहिं जाना। रह्यौ झझकि नाही परवाना॥
कत झकि झकि औरन समझावा। झगर किये झगरौ ही पावा॥

ञंञा निकट जु घट रह्यो दूरि कहा तजि जाइ।
जा कारण जा ढूँढ़ियौ नेरौ पायो ताहि॥

टट्टा बिकट घाट घाट माही। खोलि कपाट महल किन जाही॥
देखि अटल टलि कतहि न जावा। रहै लपटि घट परचौ पावा॥
ठट्ठा इहै दूरि ठग नीरा। नीठि नीठि मन कीया धीरा॥
जिन ठग ठग्या सकल जग खावा। सो ठग ठग्या ठौर मन आवा॥
डड्डा डर उपजै डर जाई। ता डर महि डर रह्या समाई॥
जौ डर डरै तौ फिरि डर लागै। निडर हुआ डर उर होइ भागै॥
ढढ्ढा ढि ढूँढहिं कत आना। ढूँढ़त ही ढहि गये पराना॥
चढ़ि सुमेर ढूँढ़ि जब आवा। जिह गढ़ गढ्यो सुगढ़ महि पावा॥
णण्णा रणि रूतौ नर नेही करै। नानि बैना फुनि संचरै॥
धन्य जनम ताही को गणै। मारे एकहि तजि जाइ घणै॥
तत्ता अतर तरो नइ जाई। तन त्रिभुवन मैं रह्यो समाई॥
जौ त्रिभुवन तन माहि समावा। तौ ततहि तत मिल्या सचु पावा॥
थथ्था अथाह थाह नहीं पावा। ओहु अथाह इहु थिर न रहावा॥
थोड़े थल थानक आरंभै। बिनु ही थाहर मंदिर थंभै॥
दद्दा देखि जु बिनसन हारा। जस अदेखि तस राखि बिचारा॥
दसवै द्वार कुंजी जब दीजै। तौ दयाल कौ दर्सन कीजै॥
धद्धा अर्द्धहि अर्द्ध निबेरा। अद्धहि उर्द्धह मंझि बसेरा॥
अर्द्धह छाड़ि अर्द्ध जो आवा। तो अर्द्धहि उर्द्ध मिल्या सुख पावा॥
नन्ना निसि दिन निरखत जाई। निरख नयन रहे रतवाई॥
निरखत निरखत जब जाइ पावा। तब ले निरखहिं निरख मिलावा॥
पप्पा अपर पार नहीं पावा। परम ज्योति स्यो परचौ लावा॥
पाँचो इंद्री निग्रह करई। पाप पुण्य दोऊ निरबरई॥
फफ्फा बिनु फूलै फल होई। ता फल फंक लखै जो कोई॥
दूणि न परई फंक बिचारै। ता फल फंक सबै नर फारै॥
बब्बा बिंदहि बिंद मिलावा। बिंदहि बिंद न बिछुरन पावा॥
बंदौ होइ बंदगी गहै। बंधक होइ बंधु सुधि लहै॥
भभ्भा भेदहि भेद मिलावा। अब भौ भांति भरौसौ आवा॥
जो बाहर सो भीतर जान्या। भया भेद भूपति पहिचाना॥
मम्मा मूल रह्या मन मानै। मर्मी हो सो मन कौ जानै॥
मत कोइ मन मिलना बिलमावै। मगन भया तेसो सचु पावै॥

मम्मा मन स्यो काजु है मन साधै सिधि होइ॥
मनही मन स्यो कहै कबीरा मनसा मिल्या न कोइ॥

हुई मन सकती इहु मन सीउ। इहु मन मंच तत्व को जीउ।
इहु मन ले जौ उनमनि रहै। तौ तीनि लोक की बातै कहै॥

यय्या जौ जानहि तौ दुर्मति हनि बसि काया गाउ।
रणि रूतौ भाजै तहीं सूर उधारौ नाउ॥

रारा रस निरस्स करि जान्या। होइ निरस्स सुरस पहिचान्या।
इह रस छोड़े उह रस आवा। उह रस पीया इह रस नहीं भावा।
लल्ला ऐसे लिव मन लावै। अनत त जाइ परम सचु पावै॥
अरु जौ तहा प्रेम लिव लावै। तौ अलह लहै लहि चरन समावै।
ववा बार बार बिष्णु समारि। बिष्णु समारि न आवै हारि॥
बलि बलि जे बिष्णु तना जस गावै। बिष्णु मिलै सबही सचु पावै॥

वावा वाही जानियै वा जाने इहु होइ।
इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ॥

शश्शा सो नीका करि सोधहु। घट परचा की बात निरोधहु॥
घट परचै जो उपजै भाउ। पूरि रह्या तह त्रिभुवन राउ॥
षष्षा खोजि परै जो कोई। जो खोजै सो बहुरि न होई॥
खोजि बूझि जो करै बिचारा। तौ भवजल तरत न लावै बारा॥
सस्सा सो सह सेज सवारै। सोई सही संदेह निवारै॥
अल्प सुख छाड़ि परम सुख पावा। तब इह त्रिय ओहु कंत कहावा॥
हाहा होत होइ नहीं जाना। जबही होइ तबहि मन माना॥
है तो सही लखौ जो कोई। तब ओही उह एहु एहु न होई॥
लिउँ लिउँ करत फिरै सब लोग। ता कारण ब्यापै बहु सोग॥
लक्ष्मीबर स्यो जौ लिव लागै। सोग मिटै सब ही सुख पावै॥
खख्खा खिरत खपत गये केते। खिरत खपत अजहूँ नहिं चेते॥
अब जग जानि जो मना रहै। जह का बिछुरा तहँ थिरु लहै॥
बावन अक्खर जोरे आन। सकया म अक्खरु एक पछानि॥
सत का सबद कबीरा कहै। पंडित होइ सो अनभै रहै॥
पंडित लोगह कौ ब्यवहार। दानवंत कौ तत्व बिचार॥
जाकै जीय जैसी बुधि होई। कहि कबीर जानैगा सोई॥151॥

बिंदु ते जिन पिंड किया अगनि कुछ रहाइया।
दस मास माता उदरि राख्या बहुरि लागी माइया॥
प्रानी काहै को लोभि लागै रतन जनम खोया।
पूरब जनम करम भूमि बीजु नाहीं बायो॥
बारिक ते बिरध भया होना सो हाया।
जा जम आइ झोट पकरै तबहि काहे रोया॥
जीवन की आसा करै जम निहारै सासा।
बाजीगरी संसार कबीरा चेति ढालि पासा॥152॥

बुत पूजि हिंदू मुये तुरक मूये सिर नाई।
ओइ ले जारे ओइ ले गाड़े तेरौ गति दुहूँ न पाई।
मन रे संसार अंध गहेरा। चहुँ दिसि पसरो है जम जेवरा॥
कबित पढ़े पढ़ि कविता मूये पकड़ के दारै जाई।
जटा धारि धारि जोगी मूये मेरी गति इनहि न पाई॥
द्रव्य संचि संचि राजे मूये गड़िले कंचन भारी।
बेद पढ़े पढ़े पंडित मूये रूप देखि देखि नारी॥
राम नाम बिन सबै बिगूते देखहु निरखि सरीरा।
हरि के नाम बिन किन गति पाई कहि उपदेस कबीरा॥153॥

भुजा बाँधि मिला करि डारौं। हस्ती कोपि मूँड महि मारो।
हस्ती भगि के चीसा मारै। या मूरति कै हौ बलिहारै॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोर। काजी बकिबो हस्ती तोर।
हस्त न तोरै धरै ध्यान। वाकै रिदै बसै भगवान॥
क्या अपराध संत है कीना। बाँधि पाट कुंजर को दीना॥
कुंजर पोटलै लै नमस्कारै। बूझी नहीं काजी अंलियारै॥
तीन बार पतिया भरि लीना। मन कठोर अजहू न पतीना॥
कहि कबीर हमारा गोबिंद। चौथे पद महि जन की जिंद॥154॥

भूखे भगति न कीजै। यह माला अपनी लीजै।
हौं माँगो संतन रेना। मैं नाहीं किसी का देना॥
माधव कैसी बने तुम संगै। आपि न देउ तले बहु मंगे॥
दुइ सेर माँगौ चूना। पाव घीउ संग लूना।
अधसेर माँगौ दाले। मोको दोनों बखत जिवालै।
खाट माँगौ चौपाई। सिरहाना और तुलाई॥
ऊपर कौ माँगौ खींधा। तेरी भगति करै जनु बींधा॥
मैं नाहीं कीता लब्बो। इक नाउ तेरा मैं फब्बो॥
कहि कबीर मन मान्या। मन मान्या तो हरि जान्या॥155॥

मन करि मक्का किबला करि देही। बोलनहार परस गुरु एही।
कह रे मुल्ला बाँग निवाज। एक मसीति दसै दरवाज॥
मिसभिलि तामसु भर्म क दूरी। भाखि ले पंचे होइ सबूरी॥
हिंदू तुरक का साहिब एक। कह करै मुल्ला कह करै सेख॥
कहि कबीर हो भया दिवाना। मुसि मुसि मनुआ सहजि समाना॥156॥

मन का स्वभाव मनहिं बियापी। मनहि मार कवन सिधि थापी।
कवन सु मनि जो मन को मारै। मन को मारि कबहुँ किस तारै॥
मन अंतर बोलै सब कोई। मन मारै बिन भगत न होई।
कबु कबीर जो जानै भेउ। मन मधुसूदन त्रिभुवन देउ॥157॥

मन रे छाड़हु मर्म प्रगट होई नाचहु या माया के डाड़े।
सूर कि सनमुख रन ते डरपै सती की साँचे भाँड़े॥
डगमग छाँड़ि रे मन बौरा।
अब तो जरै मरै सिधि पाइये लीनो हाथ सिधोरा।
काम क्रोध माया के लीने या बिधि जगत बिगूचा॥
कहि कबीर राजा राम न छोड़ौ सगल ऊँच ते ऊँचा॥158॥

माता जूठी पिता भी जूठा जूठा फल लागे॥
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे॥
कबु पंडित सूचा कवन ठाउ। जहाँ बैसि हौ भोजन खाउ।
जिहवा जूठी बोलन जूठा करन नेत्रा सब जूठे।
इंद्री की जूठी उतरसि नाहि ब्रह्म अगनि के जूठे॥
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइया।
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइया॥
गोबर जूठा चौका जूठा जूठी दीनों कारा॥
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा॥159॥

मरन जीवन की संका नासी। आपन रंगि सहज परगासी॥
प्रकटी ज्योति मिट्या अँधियारा। राम रतन पाया करता बिचारा॥
जहँ अनंद दुख दूर पयाना। मन मानुक लिव तत्तु लुकाना॥
जौ किछु होआ सू तेरा भाणा। जौ इन बूझे सु सहजि समाणा॥
कहत कबीर किलबिष गये खीणा। मन माया जग जीवन लीणा॥160॥