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परिशिष्ट-3 / कबीर

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कबीर गरबु न कीजियै देही देखि सुरंग।
आजु कालि तजि जाहुगे ज्यों कांचुरी भुअंग॥41॥

गहगंच परौं कुटुंब के कंठै रहि गयो राम।
आइ परे धर्म राइ के बीचहिं धूमा धाम॥42॥

कबीर गागर जल भरी आजु कालि जैहै फूटि।
गुरु जु न चेतहि आपुनो अधमाझली जाहिगे लूटि॥43॥

गुरु लागा तब जानिये मिटै मोह तन ताप।
हरष सोग दाझै नहीं तब हरि आपहि आप॥44॥

कबीर बाणी पीड़ते सति गुरु लिये छुड़ाइ।
परा पूरबली भावनी परगति होई आइ॥45॥

चकई जौ निसि बीछुरै आइ मिले परभाति।
जो नर बिछुरै राम स्यों ना दिन मिले न राति॥46॥

चतुराई नहिं अति घनी हरि जपि हिरदै माहि।
सूरी ऊपरि खेलना गिरैं त ठाहुर नाहि॥47॥

चरन कमल की मौज को कहि कैसे उनमान।
कहिबे को सोभा नहीं देखा ही परवान॥48॥

कबीर चावल कारने तुमको मुहली लाइ।
संग कुसंगी बैसते तब पूछै धर्मराइ॥49॥

चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारै।
जैसे बच रहि कुंज मन माया ममता रे॥50॥

चोट सहेली सेल की लागत लेइ उसास।
चोट सहारे सबद की तासु गुरु मैं दास॥51॥

जग कागज की कोठरी अंध परे तिस मांहि।
हौ बलिहारी तिन्न की पैसु जू नीकसि जाहि॥52॥

जग बांध्यौ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर।
जैहहि आटा लोन ज्यों सोन समान शरीर॥53॥

जग मैं चेत्यो जानि कै जग मैं रह्यौ समाइ।
जिनि हरि नाम न चेतियो बादहि जनमें आइ॥54॥

कबीर जहं जहं हौ फिरो कौतक ठाओ ठांइ।
इक राम सनेही बाहरा ऊजरू मेरे भांइ॥55॥

कबीर जाको खोजते पायो सोई ठौर।
सोइ फिरि के तू भया जकौ कहता और॥56॥

जाति जुलाहा क्या करे हिरदै बसै गुपाल।
कबीर रमइया कंठ मिलु चूकहि सब जंजाल॥57॥

कबीर जा दिन ही सुआ पाछै भया अनंद।
मोहि मिल्यो प्रभु अपना संगी भजहि गोबिंद॥॥58॥

जिह दर आवत जातहू हटकै नाही कोइ।
सो दरु कैसे छोड़िये जौ दरु ऐसा होइ॥59॥

जीया जो मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु।
दफतर दई जब काढिहै होइगा कौन हवालु॥60॥