परिशिष्ट-6 / कबीर
भाँग माछुली सुरापान जो जो प्रानी खाहि।
तीरथ बरत नेम किये ते सबै रसातल जांहि॥101॥
भार पराई सिर धरै चलियो चाहै बाट।
अपने भारहि ना डरै आगै औघट घाठ॥102॥
कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर।
पाछै लागो हरि फिरहिं कहत कबीर कबीर॥103॥
कबीर मन पंखी भयो उड़ि उड़ि दह दिसि जाइ।
जो जैसी संगति मिलै सो तैसी फल खाइ॥104॥
कबीर मन मूड्या नहीं केस मुड़ाये काइ।
जो किछु किया सो मन किया मुंडामुंड अजाइ॥105॥
मया तजी तो क्या भया जौ मानु तज्यो नहीं जाइ।
मान मुनी मुनिवर गले मानु सबै को खाइ॥106॥
कबीर महदी करि घालिया आपु पिसाइ पिसाइ।
तैसेई बात न पूछियै कबहु न लाई पाइ॥107॥
माई मूढहू तिहि गुरु जाते भरम न जाइ।
आप डूबे चहु बेद महि चेले दिये बहाइ॥108॥
माटी के हम पूतरे मानस राख्यो नाउ।
चारि दिवस के पाहुने बड़ बड़ रूधहि ठाउ॥109॥
मानस जनम दुर्लभ है होइ न बारै बारि।
जौ बन फल पाके भुइ गिरहिं बहुरि न लागै डारि॥110॥
कबीर माया डोलनी पवन झकोलनहारु।
संतहु माखन खाइया छाछि पियै संसारु॥111॥
कबीर माया डोलनी पवन बहै हिवधार।
जिन बिलोया तिन पाइया अवन बिलोवनहार॥112॥
कबीर माया चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि।
एकु कबीरा ना मुसै जिन कीनी बारह बाटि॥113॥
मारी मरौ कुसंग की केले निकटि जु बेरि।
उह झूलै उह चीरिये नाकत संगु न हेरि॥114॥
मारे बहुत पुकारिया पीर पुकारै और।
लागी चोट मरम्म की रह्यौ कबीरा ठौर॥115॥
मुकति दुबारा संकुरा राई दसएँ भाइ।
मन तौ मंगल होइ रह्यौ निकस्यो क्यौं कै जाइ॥116॥
मुल्ला मुनारे क्या चढ़हि साँई न बहरा होइ।
जाँ कारन बाँग देहि दिल ही भीतरि जोइ॥117॥
मुहि मरने का चाउ है मरौं तौ हरि के द्वार।
मत हरि पूछै को है परा हमारै बार॥118॥
कबीर मेरी जाति की सब कोइ हंसनेहारु।
बलिहारी इस जाति कौ जिह जपियो सिरजनहारु॥119॥
कबीर मेरी बुद्धि को जसु न करै तिसकार।
जिन यह जमुआ सिरजिआ सु जपिया परबदिगार॥120॥