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परिहास / उषारानी राव
Kavita Kosh से
मद्धिम उजाले में
जरा-जीर्ण पिता का चेहरा
उभरा
स्वर गूँजा
"स्त्रियाँ हीं संसार
में खातीं हैं धोखा !
बनतीं हैं शिकार
संवेदनहीनता की "
उनकी भींगीं पलकें पृथ्वी को
धुँधला करने लगीं
घरेलु ज़द्दोज़हद में
होम करतीं
अपने युवा दिनों को
पीछे छोड़ आतीं
भाई-बहन सखी-सहेली
तालाबनाव
बगान के फूलों
औरझूलों कों
स्वतंत्र ईकाई का अहसास
तक नही!
सुरंग के भीतर के जैसा
एक जीवन
मारपीट,बलात्कार
जला दिया जाना
फँदे की विवशता
कर ले चाहे कितना
ही जतन !
ढलने लगी है साँझ चुप-चाप
एक टुकड़ा मेघ ने
चाँद को ढक रखा है
हा हा दारुण परिहास
फैल जाता