परींढै में पांणी नीं / नन्द भारद्वाज
घर रै अेक न्यारै खूंणै मांय
मूंढौ लुकोवती -
ठींडां पर लाख लागी,
कीं कोरी कीं काची
मूंधी मारी माटक्यां में मून
ग्वाड़ी रौ धरम
औ पांणी रौ परींढौ है!
(अर परींढौ अैड़ौ
के जिणमें
कंठ भिजोवण पांणी नीं!)
फळसै में बड़ता
फलांण जी समचार पूछै -
कैवौ सगाजी !
कैड़ा-क व्हिया मेह-पांणी?
जदके सगैजी रै परींढै में
टांटिया बूंकै
अर पेमै कुम्हार री न्याई में
तिरसौ गदेड़ौ भूंकै -
सगोजी परींढै सूं पूछै,
आभै में उपाळा भाजै
अर सेवट फोग रै घोचै सूं
नीची धुण घाल्यां
बैठा आंगणौ कुचरै
नीं ऊतर देवै
नीं पड़ूतर
फगत कीं सूका आखर उथळावै -
‘कांई कैवां जोसी!
आवौ बैठौ,
चिलम पीवां --
हाल परींढै रै पांणी में कादौ है
अर वियां नीथरै ई कांई,
वौ सांम्ही पड़्यौ घड़ौ
सफ्फां आधौ है!
भायौ पखाल लेय आवतौ ई व्हैला,
आवौ बैठां - बंतळ करां
(फगत तिरसा ई क्यूं मरां,
आ जांणतां थकां
परींढै में पांणी नीं !)
घणखरीक बिरियां तौ म्हैं
परींढै पसवाड़ै ऊभौ देख्या करूं -
म्हारी मारू मां री आंख्यां में
बीजळियां खिंवै,
मोकळौ मेह बरसै
अर पछै डावी में गंगा
अर जींवणी में जमना
चौधारां चालती रैवै -
चालती रैवै ---
स्यात्
स्मंदर तांई पूगती व्हैला,
पण तिरसां मरती दादी
कीकर सुणावै कहाणी,
जद के
परींढै में छांट नीं पांणी !!
सितंबर, 1971