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परेशां है समंदर तिश्नगी से / वीनस केसरी

परेशां है समंदर तिश्नगी से
मिलेगा क्या मगर इसको नदी से


अमीरे शहर उसका ख़ाब देखे
कमाया है जो हमने मुफलिसी से
 
पुराना मस्अला ये तीरगी का
कभी क्या हल भी होगा रोशनी से

यहीं तो खुद से खा जाता हूँ धोका
निभाना चाहता हूँ मैं सभी से


नदी वाला तिलिस्मी ख़्वाब टूटा
भरा बैठा हूँ अब मैं तिश्नगी से

भुला बैठे जो रस्ता उस गली का
गुज़रना हो गया किस किस गली से
 
खुशामद भर है जो महबूब की तो
मुझे आजिज समझिए शाइरी से
 
पुराना है मेरा लहज़ा यकीनन
मगर बरता है किस शाइस्तगी से