भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परों को तोल / शीला पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तोल मौसम की हवाओं के
परों को तोल।

 रख शिराओं में कोई
 नायाब-सा हो यंत्र रख ले
 लख घटाओं के रसायन के
 सभी बदलाव लख ले
 
 सोख अमृत को नसों में
 अनथके प्रण सोख भीतर
 कोख में हर बूँद मोती
 रोप उसकी कोख के तर

 बो रहा जो है हरापन
 हर दिशा में बिन कहे
 बालता है दीप भी
 अलमस्त भी अनमोल!
 तोल मौसम की हवाओं के
 परों को तोल।

भेद विष को अंत तक तू
लक्ष्य देकर भेद सागर
छेद नागों-नासिका
शर-विष बुझे से छेद नागर

 साँस धर तन, तलहटी में
 परिक्रमा कर साँस-सोई
 प्यास रख रणभूमि की
 फिर भर किसी में, प्यास कोई
 
 जा रहा जो युद्ध में
 बाँका धनुर्धर दूर तक
 शंख, ध्वनियाँ प्रीति-माटी,
 जय, लिये सँग डोल।
 तोल मौसम की हवाओं के
 परों को तोल।