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परोसती प्रेम / पद्मजा बाजपेयी
Kavita Kosh से
पथ पर बैठी नारी, लिए भोजन की तैयारी,
परस रही है प्रेम, जिसे वह खुद न परसी,
जीत लिया हृदय, सभी का उसने ऐसे,
निरख रहे है लोग, हिरणी को शावक जैसे,
तृप्त हो गयी आज, ममता की झोली,
खोज रही थी जिसे, अभी तक लिए आंखे सूनी,
सेवा ही है धर्म, सभी से ऊँचा समझो,
रह जाता है शेष, धरा पर प्रेम ही समझो।