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पर्यावरण बचाउ / शशिधर कुमर 'विदेह'

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एक छल राजा, एक छलि रानी,
सुनने होयब कतोक पिहानी।
आइ कहानी मे नञि राजा,
नहिञे थिकीह कोनहु रानी॥
सुनू आइ एहने एक खिस्सा,
जकर पात्र हम सभ प्राणी।
सुरूजक धियापुता नवग्रह अछि,
धरा-दुलारी-धी-रानी॥


इएह माटिक उपजा छी हम सभ,
हम सभ इएह धरतीक सन्तान।
एकरहि छाती चीरि उगैत’छि,
गहूम धान आ आम लताम॥
ओकरहि हरियर-हरियर आँचर,
गाछ बिरिछ पोषए अछि प्राण।
माए थिकीह हम आओर कहू की,
करू की हुनि महिमा गुणगान ??


ई धरती अनुपम छी बौआ,
जिनगी केर प्रत्यक्ष ठेकान।
आन कतहु एखनहु धरि दैय्या,
जिनगी तँ अछि बस अनुमान॥
आइ एखन धरि जे बूझल अछि,
धरती सभसँ अजगुत छी।
एहि धरती केर जैवक्षितिज पर,
मनुखक रचना अद्भुत छी॥


पर “अद्भुत” केर अहङ्कार मे,
अपनहि नाश करै छी हम।
ठोहि पारि विज्ञान कनै अछि,
देखि अपन अनुचित उपक्रम॥
हबा बहै अछि जहर भरल,
आ पानि प्रदूषित कलुषित अछि।
कतेक अनेरो हल्ला-गुल्ला,
माथ मनुक्खक बोझिल अछि॥


अपन माए केर प्राण बचाबी,
आउ आइ संकल्प करी।
हाबा-पानि आ माटि बचाबी,
पर्यावरण प्रशस्त करी॥
कम-सँ-कम ततबा रोपी,
जतबा गाछी हम नष्ट करी।
विज्ञानक सद्‌-अर्थ बुझी,
नञि अनुचित बूझि अनर्थ करी॥