पर्यावरण / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
सर्ग-रचनावली के हरित सत्र हैं।
रत्नगर्भा धरा के सघन छत्र हैं।
वेद के ज्ञान को वक्ष पर टाँकते,
धन्यवादार्ह ये भोजतरु-पत्र हैं॥
मेदिनी की मृदा-उर्वरा के लिए।
भूधरों की प्रबल सत्वरा के लिए।
है ज़रूरी हरित वृक्ष की वाटिका,
वायुमण्डल-गगन औ' धरा के लिए॥
भूमि की भव्य शोभा के शृंगार हैं।
मेघ को खींच लाने की पतवार हैं।
जैविकी-सम्पदा बाँटते मुक्त कर,
वृक्ष पर्यावरण के महाधार हैं॥
मेघ-आह्वान के ऊर्ध्वमुख केतु हैं।
शुद्ध वातावरण के वृहद हेतु हैं।
दिव्य पर्यावरण को बनाये हुए,
वृक्ष धरती-गगन-मध्य के सेतु हैं॥
भूमि की शाटिका-सी सजीली लता।
अप्सरा-सी मनोहर लजीली लता।
वृक्ष के बाहु में अर्पिता-सी पड़ी,
सौम्य सुषमावली-सी रँगीली लता॥
पर्वतों के प्रणय की कहानी लिये।
बादलों के हृदय की जवानी लिये।
ज़िन्दगी के सर्जन की मधुर राह पर,
दिव्य नदियाँ चलीं पुण्य पानी लिये॥
सिन्धुघाटी-समुन्नत-कथा है यही।
जाह्नवी की मनोहर प्रथा है यही।
घाट की सीढ़ियों से सदा खेलती,
भक्तजन को सुलभ सर्वथा है यही॥
योगियों के लिए कर्मदा है यही।
शोषितों के लिए वर्मदा है यही।
प्यार से थपकियाँ दे खुशी बाँटती,
आमजन के लिए नर्मदा है यही॥
यज्ञ-संस्कार का आचरण है कहाँ?
भूमि का वृक्ष-सा आभरण है कहाँ?
द्रौपदी द्रुमदलों से विवंचित हुई,
पाण्डुपुत्रों-सा पर्यावरण है कहाँ?
आदमी जंगलों पर किया आक्रमण।
स्वार्थ के तन्तुओं से बुना आवरण।
धूल की पालकी धूम लेकर चला,
आज दूषित हुआ दिव्य पर्यावरण॥
स्वर्ण-वैभव की जागृत हुई चाह है।
लोभ से ही प्रदूषित हुई राह है।
हैं प्रदूषक धरा के हिरण्याक्ष-से,
और दूषक-नियन्त्रक ही वाराह है॥
आदमी को हवा और जल चाहिए।
वस्त्र-घर-अन्न का दिव्य बल चाहिए।
आज पर्यावरण को सुरक्षित करो,
क्योंकि सुन्दर सरल एक कल चाहिए॥