पर्वतराज हिमालय / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
अंशुलेख लिख सिन्धुमेखला पृथिवी के आनन पर,
उतर रहा आलोक गगनमणि का हिरण्यमय भास्वर।
आगे मैं बढ़ रहा देखता दुर्गम हिमगिरि-पथ पर,
गहन घोरदर्शन दारुण वन, नादविनादित कन्दर।
खुलते हुए चित्रपट छवि के आते दृष्टिपटल पर,
दिव्यलोक के अन्तरंग का रंगों में अंकन कर।
अद्भुत महाकाव्यमय, सोम अग्निमय, छन्दसाममय,
चिन्मयमहाभावमय, महानादमय, देवदेवमय
अभिनव महाकोशमय, महानृत्यमय-परमकलामय,
आरोहणमय-अवरोहणमय, तालनाद छन्दोमय।
किस सहस्रशीर्षा विराट का छन्द अर्थ से गर्भित,
भावों की अभिनव उत्कर्ष-व्यंजना में विनिवेशित।
सुन्दरता के वर्णपटल पर अनन्तत्व अभिषेकित,
चित्रकाव्य का बिम्ब बनाता ध्वनियों में संकेतित।
समाधिस्थ शतियों से तड़ितपताकाओं से मंडित,
महाकाल को चाट रहा शिंखरों से ज्योतिविदीपित।
ऊर्ध्वलोक में महाभयंकर अट्टहास करता-सा,
मेघविवर में महानिशा का अन्धकार हरता-सा।
सूक्ष्म व्य´्जना में रहस्य के चिन्मय उन्मीलन-सा,
जादू डाल रहा माया के मोहक वशीकरण-सा।
जगा रहा कितने अतीत के स्वप्नों को पलकों पर,
जिज्ञासा की दिव्य अग्नि को प्यासी आँखों में भर।
चित्र-विचित्र धातुओं, रत्नों से गिरिराज समावृत,
परिधाकार, कटावदार चट्टानों से परिवर्त्तित।
रीढ़दार टेकड़ियों की परिखाओं से अनुबन्धित,
घटनाओं के भीषण झंझावातों से आन्दोलित।
जिसके महायाम में फीके पड़ जाते तारागण,
प्रलयकाल के मेघ ‘बलाहक’ संज्ञा करते धारण।
गिरिगर्त्तों से तालबद्ध उद्गारों का विस्फोटन,
जगा मोहनिद्रा से करता रागों का प्रक्षालन।
महातीर्थ का कारण जिसका एक-एक कण पावन,
निर्मल गंगाजल में जिसके मूर्त्तिमान अघभर्षण।
मंगल परम मंगलों का भी जिसका अन्तर दर्पण,
जिसकी मूर्त्तिमती सुषमा में सुरभित नन्दनकानन।
देवपùिनी गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र पावनतम,
जहाँ अलकनन्दा, सतलज, झेलम नदियों का उद्गम।
नन्दादेवी, महासानु सागरमाथा गर्वोन्नत,
धौलागिरि, नंगा, कंचनजंघा जिसके अन्तर्गत।
पवर्तत बहते पानी बनकर नदियाँ बहतीं फटकर,
हवा काँपती बहती थर-थर वन के मन में सुर भर।
पटक रहे सिर पाषाणों पर फेन उगलते निर्झर,
करते गगनविकम्पन महामेघसमध्विन हर-हर-हर,
पग-पग पर परमाभिराम अंकोल, चिनार, उदुम्बर,
अरुणरागमय, चित्रवर्णमय सिरस, कदम्ब मनोहर।
हरिचन्दन के गन्धज्वार से मदमय गुहासमीरण,
कुसुमवितानपूर्ण सर्जार्जुन करते ग्रीवालिंगन।
नयन विमोहन देवदारू, मन्दार, असन प्रिय दर्शन,
अँगड़ाई लेते हिमगिरि शृंगों के तोरण पर घन।
कला-विलासों से बहलाती स्वयं प्रकृति अपना मन,
फूलघाटियों में ढक फूलों के अवगुंठन से तन।
उठा रहा सौरभ की लहरें ब्रह्मकमल का परिमल,
गन्धपूत कर देता मन को देवकन्द दुग्धोज्वल।
आनन्दों के महायाम में मँडराता अम्बस्तल,
अंजन के समान नरसल हिम के जलकण से शीतल।
पत्रलता से लिखित चित्र में वनदेवी का आनन,
गान गान को देता फूलों के रंगों का नूतन।
पहना गिरि-शृंगों ने कुश-कासों का वल्कल शोभन,
करता गुग्गुलद्रुम का द्रव चट्टानों का अभिषेचन।
ऋक्षों, चीतों व्याघ्रों, लंगूरों से भरा महावन,
दिन में ही निशीथ के तम का करा रहा दिग्दर्शन।
लतावितानों, वल्शाओं से महाकाय द्रुम शोभित,
खड्गाकार, कंकणाकार पत्तियों से संयोजित।
वर्त्तमान, भावी, अतीत के प्राण-स्रोत से छन्दित,
ऋत के एक अनन्त अनादि नियम से नृत्यतरंगित।
अन्धकार पतला-सा नभ-तल पर कुहरे की चादर,
सिन्दूरारुण किरण फेंकता जिस पर भुवनविभाकर।
श्रीरमृणलवर्ण-से, इन्द्रनीलमणि-से विद्योतित,
किंशुकुसुमचूड़-से तृणदुममंडित धातु अलंकृत।
स्याह, कासूनी, सब्ज, गुलाबी, कंुज, उनीले जलधर,
दिग्विराट के ऊर्ध्व-अध को शब्द, मन्त्र, स्वर से भर।
हिला तड़ित के कुण्डल इस पर्वत से उस पर्वत पर,
नभ को निगल स्वर्ग को ढकते मार रहे पर ऊपर।
ध्वनि-तरंग में आवर्त्तन कर जाते कभी बवंण्डर,
ताण्डवीय उद्गारों से दिग्मण्डल को कम्पित कर।
मेघ धनुष में कोण बनाते किरणों के मार्गणखर,
बन जाते जम कर कुहरे के जल सीकर हिमसीकर।
ऊँघ रहे बैठे चितकबरे पंखों वाले लगभग,
जल विहार कर तटवर्त्ती वृक्षों पर मादा के संग।
गोलाकार घुमाते पर को चकवे नीचे-ऊपर,
मंडराते जा रहे अदा के साथ पनचिरे सिर पर।
धूप तापते झुण्डों में पनलोहे जल के तट पर,
परिचय देते कोड़ापाखी ‘का-का-का’ कलरवकर।
लिए गुलाबी झलक सफेदी में सुन्दर हंसावर,
मन को मोर बनाते मदविह्वल गुलाबसर डूमर
कोंक-कोंक कर शोर मचाते गगनबेड़ रह-रहकर,
वृत्ताकार परिधि में सारस नभ मार रहे पर।
मोरिनियों के साथ नाचते मोर पंख फैलाकर,
घनमृदंग सुन महारण्य के भीतर नाद गहन भरं
सूखे पत्तों की मर्मर ध्वनि में जाने क्या कह कर,
गाता दिव्य गन्ध वह पवन निरन्तर साम-रथन्तर।
फहराता पल्लव का अंचल वन का आकुल अन्तर,
बिथुराते भौंरों को हिल-हिलकर फूलों के शेखर।
वरवर्णिनी प्रिये, हम बैठें शाद्वल दूर्वा´्चल पर,
गिरा रहा रोमन्थ फेन मृग तरु-निकुंज के भीतर।
करता शरवर्षण उन्मादन कैसा दिव्याकर्षण,
धनुष तान कर महामेघ में फूलों का सम्मोहन।
एक दूसरे से टकराते शिलाखण्ड कट-पिट कर,
जीवन के धाराप्रवाह में शतधा परिवर्त्तन कर।
झटके खाकर लहर उठाते भँवर-गर्त्त में पड़कर,
अगल-बगल में उथल-पुथल कर उलट-पुलट कर चिर कर।
इन पर्वत-शिखरों से भी ऊपर उड़ता मेरा मन,
कामरूप पुष्कर ऐरावत मेघों का कर भेदन।
अन्तरिक्ष में जहाँ निरन्तर उल्कागण प्रलयंकर,
घूमा करते सर्पिल कुण्डलियों में झड़ी लगा कर।
जहाँ प्रफुल्लित प्रकृति-पुरुष का होता ताण्डव-नर्त्तन
मन-अम्बर में भर अनादि स्वन-प्रणवकला का स्पन्दन।
तम का अन्तर्भाव ज्योति के पùराग से रंजित,
प्राणशक्ति के उद्भावन से आलम्बित उद्दीपित।