तब तो, उसकी प्रतीक्षा करते हुए मैं खो बैठूँगा उसे|
— काफ़्का
पर्वतों के नील से किसक रही है बर्फ़ की धूप नदी के मुख में। “मात्सुशिमा / आह मात्सुशिमा / मात्सुशिमा!” लुन्स्दाल से हलकी कूक के साथ आर्कटिक की सफ़ेद रात में टहल आती हैं ट्रेन की खिड़कियाँ। बौनों का और से और रूप धरते हैं उत्तर की ओर धीमे-धीमे भागते हुए पेड़। ध्रुवों के पानी होते श्वेत में अपनी भूख को लिए-लिए फिरते हैं बर्फ़ के चौपाए।
हो सकता है क्या इतने क़रीब से छूकर भी मैंने खो दिया हो उसे?