भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पर्वत, जंगल पार करेगी बंजर में आ जाएगी / ओमप्रकाश यती
Kavita Kosh से
पर्वत, जंगल पार करेगी बंजर में आ जाएगी
बहते–बहते नदिया इक दिन सागर में आ जाएगी
कोंपल का उत्साह देखकर शायद मोम हुआ होगा
वर्ना इतनी नरमी कैसे पत्थर में आ जाएगी
बहनों की शादी का कितना बोझ उठाना है मुझको
ये बतलाने वाली लड़की अब घर में आ जाएगी।
भाभी जब भाभी माँ बनकर प्यार लुटाएगी अपना
लछिमन वाली मर्यादा भी देवर में आ जाएगी।
कारण बहुत निराशा के हैं, मुश्किल हैं राहें लेकिन
कोशिश करने से तब्दीली मंज़र में आ जाएगी।
शाम हुई तो कुछ रंगीनी बढ़ जाएगी शहरों की
और गाँव की बस्ती काली चादर में आ जाएगी।