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पर्वत रूठे / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
पर्वत रूठें
रूठ कर चले जाएँ
दूर मैदानों में
बीचों-बीच खड़े हो जाएँ तन कर
तो क्या हो।
बादल रूठें
रूठ कर छिप जाएँ चिमनियों में
नदियाँ रूठें
रूठ कर बहें पर्वत की ओर
जम जाएँ।
झरने रूठें
वापिस खींच लें पानी अपना
हवा रूठे
छिप जाए गुफाओं में
पेड़ बिगड़ें
खड़े हो जाएँ
बिजली के खँबों की जगह
तो क्या हो।
होना तो चाहिये ऐसा भी एक बार
शायद इसी को इंकलाब कहा जाए।