भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पर यही समय है / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
दिन गड़बड़
पर यही समय है
हाथ पकड़ कर चलने का
एक समय था
जब त्याग मुहब्बत ने
हमको था जोड़ा
पर लोभी
छली हवाओं ने
सबको पोर-पोर तोड़ा
नहीं मिले
मन ,यही समय है
मन से मन का मिलने का
जाति-धरम के
छल-प्रपंच को
चलो डुबायें सागर में
विष-विरोध में
निकलें मिलकर
अमरित भरकर गागर में
टूट गये
जो , यही समय है
रिश्तों के फिर जुड़ने का
हिलमिल कर
बोलें बतियायें
आखर-आखर नेह भरें
वक्त हुआ
जो मैला-मैला,
उसको मिलकर साफ करें
बिला गये
जो, यही समय है
फिर नये मूल्य रचने का