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पर हाय ये जम्हूरियत ही खा गयी मुझे / आनंद कुमार द्विवेदी

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ऐ ख्वाब तेरी ये अदा भी, भा गयी मुझे
वो सामने थे और नींद आ गयी मुझे

पल भर को मेरी आँख तेरी राह से हटी
जाने कहाँ से तेरी याद आ गयी मुझे

कुछ इश्क़ ने सताया कुछ जिन्दगी ने मारा
आख़िर को एक दिन तो मौत आ गयी मुझे

मैं आम आदमी हूँ आज़ाद तो हुआ था
पर हाय ये जम्हूरियत ही खा गयी मुझे

तू जिंदगी है फिर तो जिन्दगी की तरह मिल
बन के भला रकिब, क्यों मिटा गयी मुझे

तेरे महल से चलकर ‘आनंद’ की गली तक
तेरी दुआ सलामत पहुंचा गयी मुझे