भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पलक झपकता गया कठीने ? / किशोर कल्पनाकांत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
औस तणा नैनाकिया मोती, पसरयोडा हा इतरी ताळ!
पलक झपकाता गया कठीने, करूँ औस री ढूंढा-भाळ?

आभै तणी कूख सूं उपन्यो, सुरज-गीगलो करतो छैन!
जाय चढ्यो पूरब री गोदी, नेमधेम री सैनूंसैन!
बाड़ी-तणा फूल-पानका, चिल्कै-मुळकै बण'र बहार !
मै उगते सुरजी नै देख'र लुळ-लुळ नमन करूँ मनवार !
सुरजी रै तप सूं भापीज्यो, रीतो पड्यो दूब रो थाळ !
पलक झपकाता गया कठीने, करूँ औस री ढूंढा-भाळ !

सुरजी परतख एक सांच है, कद जाणीजै उण नै झूठ !
औस तणा मोती'ई साँचा, बात नहीं है आ परपूठ !
औस आस तो है छिणगारी, पल मे परगट पल मे लोप !

हियो सिलावै जगत सजीलो, सोक्याँ मायं सांच री ओप !
पण सगला पल एक सरीसा, ना रैवै थिर कोई काळ !
औस तणा नैनाकिया मोती, पसरयोडा हा इतरी ताळ !
पलक झपकाता गया कठीने, करूँ औस री ढूंढा-भाळ ?