पलायन के बदले / ओमप्रकाश सारस्वत
माना सुग्रीव ने
मायावी से प्राणरक्षा हेतु ही
गृहद्वार पर टेकी थी शिला
सिंहासन और भौजाई की लालसा
तब उसके मन में नहीं थी
पर लोग कहते हैं कि
वीरता को पलायन के पाँवों
बाँध देने के बदले
बह बदले की भाषा में
दहाड़ भी तो सकता था
वह गुस्से में
पहाड़ जितनी गाली बक कर
गदा को पर्वत की छाती में ठोंकते हुए
जता भी तो सकता था कि
बाप के एक बेटे को मार देने से
उसके सारे बेटे नहीं मर जाते
शूरता का स्रोत कहीं एकस्थ नहीं होता
फिर लोगों का पूछना है कि
बालि ने गुहाद्वार पर उसकी नियुक्ति
क्या अपनी मौत की खबर सुनाने
या भाग कर बीवी के
पल्लू में छुप जाने को की थी?
यूँ नगर निगमों की वृहद वृत्ताकार पाईपों में
छुपकर फुसफुसाना;
प्रेमिका के श्रंगार कक्ष में
लिपस्टिक लगाकर
अर्जुन की धोती पर हँसना;
नायिका के समक्ष शेखी बघारते हुए
अंगड़ाई की मुद्रा में
आसमान के वक्ष से
सूरज को सेब की तरह
तोड़ने की कोशिश करना
लकड़ी के घोड़े की पीठ पर उछलते हुए
शहसवारों की कथा बाँचना,
सब जनखों के लटके हैं
विदूषकी व्यायाम हैं
एक्सरे की आँख से
चमड़ी का आवरण
कैंसर को नहीं ढक सकता
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि
सुग्रीव को ऐसा क्यों नहीं लगा
कि जिसने उसके सहोदर का खून बहाया है
वह उसका खून पी जाएगा
क्यों उसने अपने उबलते गुस्से को
पैट्रोल की तरह छिड़क कर
गुफा में आग लगा दी
वह बालि का भाई होने का
ज्ञान कैसे भूल गया
वह अपने खून की
पहचान कैसे भूल गया
बन्धु! दुनिया में
भाई,तब तब ही मरा है
जब-जब भाई ने
भाई के खून की
पहचान भुलाई है
मित्र! पता नहीं
मनुष्य क्यों भुला नहीं पाता
कदाचारों की जननी सत्ता का
फ्रूटबंद की तरह
फूला हुआ है चेहरा
रजगद्दी का
वेश्या के गद्दे-सा गुदलापन
और झूठी प्रशंसा उगलते
स्वागती सभाओं के आकर्षण,
जो केवल
मनुष्य होने के समक्ष
कितने ही तुच्छ हैं
कितने ही मूल्यहीन