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पल-पल कांटा-सा चुभता था / नासिर काज़मी
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पल-पल कांटा-सा चुभता था
ये मिलना भी क्या मिलना था
ये कांटे और तेरा दामन
मैं अपना दुख भूल गया था
कितनी बातें की थीं लेकिन
एक बात से जी डरता था
तेरे हाथ की चाय तो पी थी
दिल का रंज तो दिल में रहा था
किसी पुराने वहम ने शायद
तुझको फिर बैचैन किया था
मैं भी मुसाफ़िर तुझको भी जल्दी
गाड़ी का भी वक़्त हुआ था
इक उजड़े-से इस्टेशन पर
तूने मुझको छोड़ दिया था।