भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पल रहे हैं कितने अँदेशे दिलों के दरमियाँ / हसन आबिदी
Kavita Kosh से
पल रहे हैं कितने अँदेशे दिलों के दरमियाँ
रात की परछाइयाँ जैसे दियों के दरमियाँ
फिर किसी ने एक ख़ूँ-आलूद ख़ंजर रख दिया
ख़ौफ़़ के ज़ुल्मत-कदे में दोस्तों के दरमियान
क्या सुनहरी दौर था हम ज़र्द पत्तों की तरह
दर-ब-दर फिरते रहे पीली रूतों के दरमियाँ
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
पारसाओं देवताओं क़ातिलों के दरमियाँ
आशिती के नाम पर इतनी सफ़-आराई हुई
आ गई बारूद की ख़ुश-बू गुलों के दरमियाँ
मेरा चेहरा ख़ुद भी आशोब-ए-सफ़र में खो गया
मैं ये किस को ढूँढता हूँ मंज़िलों के दरमियाँ