भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पवन चक्र परचंड चलत, चहुँ ओर चपल गति / केशव.
Kavita Kosh से
पवन चक्र परचंड चलत, चहुँ ओर चपल गति ।
भवन भामिनी तजत, भ्रमत मानहुँ तिनकी मति ॥
संन्यासी इहि मास होत, एक आसन बासी ।
पुरुषन की को कहै, भए पच्छियौ निवासी ॥
इहि समय सेज सोबन लियौ, श्रीहिं साथ श्रीनाथ हू ।
कहि केसबदास असाढ़ चल, मैं न सुन्यौ श्रुति गाथ हू ॥