भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पवमान सोम के प्रति / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्नेह-क्षरण हे!
मधु-वर्षण हे!
जठर विश्व को अमृत-घूँट दो मादक।

हवियुकर््त हो ऋत्विक
पीते जिस पय को आह्लादक,
युग-युग से जिस प्रियकर पय को
पीते प्यासे चातक।

जिसकी एक बूँद से शीतल
अतल-वितल चल प्रतिपल,
जिस रस से यह रसा रसवती,
समपोषित तृण तरु-दल।

हरित वरण हे!
पिंग वरण हे!
ढरका दो जग के कण-कण में मधुकण।

जो मदकर मधु पीकर मधुकर
खो सुध-बुध अपनापन,
वीणानिन्दित स्वर से गुंजित
गाते गीत सनातन।

चिन्मय, जरामरणजित शंकर
जो अक्षय मधु पीकर,
करते तांडव-नृत्य चिरन्तन
घूर्ण्य धराधर अम्बर।

स्रवणशील हे!
सृजनशील हे!
तरुण किरण
संचरणशील हे!
निर्मल कर दो भव का कुत्सित जीवन।
फुत्कारों से कम्पित कर दो।
छिद्रों का सिंहासन,
अन्धकार के आद्रि-शिखर पर
छूटो इन्द्र-कुलिश बन।

हृदय-हृदय में आत्माहुति की
ज्वाला होकर आओ,
निर्भयता की दो मशाल हे
दीपराग में गाओ।

गीति-गुंज हे!
ज्योति-पुंज हे!
कर दो जग के मलिन नयन में अंजन।

(रचना-काल: अगस्त 1941। ‘विशाल भारत’, अप्रैल, 1943 में प्रकाशित।)