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पशु और औरत / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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कुछ पशुओं ने
अब कुछ पुरुषों को
एक स्त्री को
सार्वजनिक रूप से
निर्वसन कर घुमाते देखा
और देखा अन्य पुरुषों को
यह आँखें फाड़-फाड़ कर
देखते हुये
तो उन्हें शर्म आने लगी
वहाँ खड़े हुये
तो वे आपस में बोले
हम न तो सभ्य हैं
न सभ्यता का दम भरते
पर पशु होकर भी
किसी भी मादा का ऐसा
प्रदर्शन नहीं करते
निरावरण पशुओं ने फिर पूछा-
आवरणों को ओढ़े हुये
पुरुष के स्त्री के प्रति
आचरण की यह जाने
अब कौन सी सदी बर्बरता की है
वैसे समय की गिनती में
मनुष्यता अब इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़ी है।