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पसरि रहल धुआँ / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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पसरि रहल धुआ कतहु आगि जरैए,
भड़़कि उठत ज्वाल से संकेत करैए।
बहैत छै बिहाड़ि विपिन कापि उठै छै,
अपनहिमे घर्षणसँ आगि उठै छै
सकल जीव-जन्तुम पड़ाहि लगै छै,
सिंह ओ सियारमे भेद रहै छै।
हाथी मदमत्त सेहो पाकि मरैए।
पसरि रहल धुआँ कतहु आगि जरैए॥
कन्द-मूल सेहो सुड्डाह होइत छै,
ज्वालामे असहनीय दाह होइत छै,
चतरल बढ़-पाकड़ि केर हरित-भरित गाछ
छन भरिमें जरि जरि खकस्याह होइत छै,
कते दिने फेर वनक घाव भरै’ए।
पसरि रहल धुआ कतहु आगि जरैए॥
दावानल एहिना उत्पन्न होइत छै,
अकठ संग साँखओ विपन्न होइत छै,
धाहीसँ धरती विषण्ण होइत छै,
जाधरि वन जरि कय सम्पन्न होइत छै,
गगन धरिक छाती पर टेम बरैए।
पसरि रहल धुआ कतहु आगि जरैए॥