भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पसीने पसीने हुए जा रहे हो / सईद राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पसीने पसीने हुए जा रहे हो
ये बोलो कहाँ से चले आ रहे हो

हमें सब्र करने को कह तो रहे हो
मगर देख लो ख़ुद ही घबरा रहे हो

ये किसकी बुरी तुम को नज़र लग गई है
बहारों के मौसम में मुर्झा रहे हो

ये आईना है ये तो सच ही कहेगा
क्यों अपनी हक़ीक़त से कतरा रहे हो