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पस-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ/ अली सरदार जाफ़री

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पस-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ क्या है
आँसू है कि तारे हैं
बुझी मग़्मूम<ref>ग़म में डूबी हुई</ref> आँखें हैं
कि अंगारे दहकते हैं
तमन्नाओं का सैले-नग़्मा है
या जोशे-गिर्यः है
मुहाफ़िज़ कुछ नहीं कहते
मगर ज़ंज़ीर की आवाज़ यह मुज़्दा सुनाती है
कि हल्के टूट जाएँगे
ब-फ़ैज़े-इश्क सब आवारा मैक़श लौट आएँगे
अगरचे जामो-साक़ी कै़द हैं
और मुह्‌तसिब तख़्ते-अदालत पर
रियाकारों<ref>पाखण्डी</ref> के हल्के़ में
सियहकारों के पहरे में
मगर कब तक
कि ज़ंज़ीरों की झनकारों का नग़्मा बढ़ता जाता है
कि ज़िन्दानों की दीवारों का क़ामत<ref>ऊँचाई</ref> घटता जाता है
सलीबों पर सही
पैगम्बरों की हुक्मरानी है

शब्दार्थ
<references/>