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पहचन खो गई / सांवर दइया
Kavita Kosh से
वे फूलों से लदे
वे रथ पर चढ़े
लेकर अपने पीछे
लाखों कंठों से निकलता जयघोष
वे आगे बढ़े
आगे भी अगवानी में तैयार
अतीत के गौरव की चकाचौंध मैं
चुंधियायी भीड़
वही उन्माद भरा जयघोष अटूट
पीछे छूटती गई
गली कोनों में
चीखें-चीत्कारें
आग की लपटें
क्षत-विक्षत लाशें
धुंआ...धुंआ...धुंआ...
साथियो !
शताब्दी का सबसे संकट भरा
समय है यही
जहां हत्यारों की पहचान खो गई है !