मांँ साड़ियों की
दूकान के शोकेस
में साड़ियों को देखकर 
हुलसतीं। 
दूकान दार से
उसका दाम 
पूछतीं, 
साड़ियों को, बहुत 
अपनेपन के एहसास
के साथ टटोलतीं
उसकी जड़ी-मोतियों-
कढ़ाई की बारिकीयों 
को गौर से निहारतीं
निहारने के क्रम में वो
साड़ियों 
के पहनने का सुख 
पातीं
उन्हें, साड़ियों को देखने
भर से ऐसा लगता कि 
साड़ियांँ टांँक दी गई हो
उनके शरीर पर या कि
उनकी आत्मा
पर
फिर, अधिक दाम
होने के कारण 
वो, मायूस होकर 
रह जाती
दाम पूछने के 
 एहसास भर से
वो साड़ियों को
पहनने का सुख 
जी-लेतीं
फिर, वह भारी मन से
निकल जातीं दूकान से
दूकानदार, मांँ को 
अजीब सी शक्ल
बनाकर घूरता
मांँ को कभी दूकानदारों
द्वारा, बताये गये दाम
पर ऐतबार
नहीं होता
वो, आजीवन 
दूकानदार द्वारा
अपने को ठगे 
जाने के भय
के भीतर जीती रहीं
मांँ, को शौक था
अच्छी-खूबसूरत, 
जड़ीदार, कढ़ाई की गई
बनारसी साड़ियों का
जहांँ भी, फेरीवाले को
देखतीं, उसकी साड़ियों को
खुलवाकर देखने लगतीं
पहली बार, मुझे ये
एहसास हुआ कि, 
साड़ियों को
छूकर 
देखने में भी पहनने का
एहसास होता है
उनको
ये अलग बात है कि 
मांँ ने आजीवन सौ
डेढ सौ रुपये से ज्यादा
की नहीं खरीदी
कभी साड़ियांँ