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पहन रखी हैं तअस्सुब की बेड़ियाँ अब भी / नफ़ीस परवेज़
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पहन रखी हैं तअस्सुब की बेड़ियाँ अब भी
सुलग रहीं हैं सियासत से बस्तियाँ अब भी
नई सहर को नई रोशनी के नाम करें
कि बंद क्यों हैं उजालों की खिड़कियाँ अब भी
मक़ाम और कई ज़िंदगी में आने हैं
मिलेंगे साँप कई और सीढ़ियाँ अब भी
किसी से राब्ता मेरा नहीं है बरसों से
न जाने क्यों ये सताती हैं हिचकियाँ अब भी
ख़िज़ाँ के रोके से रुकती कहाँ बहारें हैं
खिलेंगे फूल तो आयेंगी तितलियाँ अब भी