पहला आदमी नहीं वह / प्रांजल धर
पहली हार...
जन्म लेते ही मिली थी
पहला काम रोना,
रोते-रोते सोना ।
परिवार वालों ने कहा था
यह शिशु का ब्रह्मसाक्षात्कार है,
ज्योतिषी ने विचारा
इस पर किसी का
पिछले कुछ जनमों का काफी उधार है,
इसीलिए दुःख भरी मानव-जाति में
इसका अवतरण हुआ है ।
पहली कक्षा,
स्कूल जाने का मन नहीं हुआ,
स्कूल का पहला दिन
शाश्वत अज्ञानता का खण्डित प्रारम्भ था ।
पहला प्यार,
जिसका वह इजहार तक न कर सका,
रुकते-रुकते चला और चलते-चलते रुका !
पहला प्यार भी दूसरी पहली चीज़ों-सा
हाथ से निकल गया
लीक से फिसल गया...
भटकता रहा वह ।
पहली प्रेमिका
जिसके पहले ही ख़त में धोखा था
बहुतों ने समझाया
और मित्रों ने रोका था
समझकर क़दम बढ़ाना
फूँक-फूँक चलना और जाने क्या-क्या निर्देश !
पहली कविता,
जो उसने स्नेहस्निग्ध विरह में डूबकर लिखी,
खो गयी कहीं, पता नहीं उसका ।
पहला वादा,
जिसे अपनी मामूली ज़िन्दगी में
वह कभी पूरा न कर सका ।
यह बात हमेशा उसे सालती रही,
निरर्थकता-बोध के कड़े साँचे में ढालती रही ।
पहला सिद्धान्त,
जिसमें वह डूबा, ज़िन्दा रहने की ज़िद थी ।
पहला बेटा,
जिसने उसकी बात कभी न मानी ।
कॉरपोरेटीय आकांक्षाओं में डूबता-उतराता रहा,
पिता को धता बताता रहा ।
पहला समर्पण,
जो उसने हालात के आगे किया,
ज़िन्दगी भर मर-मर कर जिया ।
जीता रहा
और ज़िन्दगी जितनी लम्बी
निराशा का घूँट पीता रहा ।
फिर भी, वह जानता है
कि पहला आदमी नहीं वह
जिसने यह दंश झेला है
ज़िन्दगी ने उसे फुटबाल की तरह खेला है ।
और भी हैं,
जो उससे ज्यादा त्रस्त हैं, फिर भी मस्त हैं !
यही सन्तोष लिए वह
‘मेट्रो सिटी’ में रिक्शा खींचता रहता है,
खींचता रहता है आत्मीयता से ।
और रिक्शा उसे बेदर्दी से खींचता रहता है ।